(७ ऑगस्ट १८९७ -३ फेब्रुवरी१९८२)
देशाच्या स्वातंत्र्य युद्धात आपल्या लेखणीनं इंग्रजांना खुल्या आव्हानाने लढा देणाऱ्यांपैकी एक महत्त्वाचं नाव म्हणजे कवी प्रभाकर श्रीखंडे ' प्रेम '.कवी प्रभाकर यांचा जन्म ७ ऑगस्ट १८९७ साली उरई ,जिल्हा जालवण ,उत्तर प्रदेश येथील श्रीखंडे कुटुंबात झाला. प्रभाकर सहा वर्षाचे होईस्तोपर्यंत त्यांच्या आई-वडिलांनी जगाचा निरोप घेतलेला होता. नंतर आजोबा श्री मुकुंदराव श्रीखंडे(रीवा या संस्थानातील दिवाण) यांनी त्यांचा सांभाळ केला. प्रभाकर यांनी १९१३ साली अजमेर शिक्षण बोर्ड येथून इंटरची परीक्षा पास केली. १९२५-२६ च्या दरम्यान त्यांनी विश्वभारती संस्थेकडून चित्रकलेत स्नातक ही उपाधी मिळवली. १९२९ पासून ते सतना येथील व्यंकटेश हायस्कूल मध्ये चित्रकलेचे शिक्षक म्हणून नेमले गेले. १९३०साली त्यांचा विवाह कमला भागवत यांच्यासोबत झाला. त्यांची तीन अपत्ये म्हणजे - श्री शरद ,श्री मधुकर आणि प्रमिला श्रीखंडे.प्रमिलाताई ,(डॉक्टर यादवराव खेर, माजी विभाग अध्यक्ष, रसायनशास्त्र विभाग, सागर विश्वविद्यालय सागर) यांच्या पत्नी होत्या.
त्यांनी जितक्या जिव्हाळ्यांनी निसर्ग सौंदर्याच्या कविता रचल्या तितक्याच कळकळीनं सामाजिक पातळीच्या विषमतेबद्दलही स्पष्टपणे लिहिलं . त्यांच्या अशा कविता 'प्रेम पुष्पांजली' यात संग्रहित आहेत. या संग्रहात एकूण ८५ कविता असून त्या आपल्या स्वरूपानुसार वेगवेगळ्या भागात विभागल्या गेल्या आहेत. यात पहिल्या टप्प्यावर कवीने आपल्या शब्दांनी निसर्ग सौंदर्य रेखाटलेलं आहे .दुसऱ्या टप्प्याच्या कविता वास्तविकतेच्या जमिनीला स्पर्श करीत लिहिल्या गेलेल्या यथार्थवादी कविता आहे. अशा स्वरूपाच्या कविता सामाजिक विषमता, विटंबना, रूढीवादी संकीर्ण विचार, शोषण ,अत्याचार, अन्यायाच्या विरुद्ध आक्रोशाने व्यक्त होऊन, सामाजिक बदल घडविण्याच्या समर्थनात उभ्या दिसतात .तिसऱ्या टप्प्याच्या कविता भक्तीभावाने पूर्ण आहेत. यात कवी स्वतःला ईश्वरास अर्पण करून त्याच्यात एकात्म होऊ पाहतोय . कवी मनातील आशा -निराशा यात गांभीर्याने व्यक्त झाली आहे.
या संग्रहातील कवितांची भाषा-शैली सरस आणि सोपी असून नादात्मक आणि चमत्कृत करणारी आहे. गेयता या कवितांचा मुख्य गुणधर्म आहे.
'भारतीय दर्शन' वेदांताच्या व्यापक विचारांवर आधारित आहे. प्रभाकर श्रीखंडे 'प्रेम ' यांच्या कवितांमध्ये देखील ठिकठिकाणी भारतीय दर्शनाचा भास होतो. त्यांच्या कवितेत वेदांतातील शैव आणि वैष्णव दोन्ही मतांचं समन्वय दृष्टीस पडतं. एका दृष्टीने त्यांच्या कविता " सर्वे भवंतु सुखिनः " ची अपेक्षा बाळगणाऱ्या कविता आहेत.
कवी प्रभाकर श्रीखंडे ' प्रेम ' यांची कल्पनाशक्ती अप्रतिम होती.विषय कुठलाही असो, विषयाच्या खोलावर जाऊन त्याचं सत्य शोधून आणि त्याला योग्य ती शब्दकल्पनांची सांगड घालून व्यक्त करणं, हे यांच्या साहित्याचं आगळ -वेगळं वैशिष्ट्य आहे. त्यांच्या कवितेत तत्सम , तद्भव , देशज, विदेशी, बोलीभाषांचे प्रयोग सहजतेने झालेले आढळतात.' प्रेम ' यांनी मोठ्या प्रमाणात आपलं लिखाण हिन्दीतच केलं आहे. त्याशिवाय त्यांचं काहीसं साहित्य उर्दू ,इंग्रजी आणि मराठीत आहे परंतु त्यात कवितांचे विषय हिन्दीतीलच आहेत.एकूण निसर्ग ,राष्ट्र ,समाज आणि माणसांना प्रेम करणाऱ्या प्रभाकर श्रीखंडे ' प्रेम 'यांनी आपल्या कवितांच्या मार्फत वाचकांना शब्द -भाव रूपात विचार आणि दृष्टीचा मोलाचा ठेवा दिलेला आहे .
अशा अतिशय प्रतिभावान कवी प्रभाकर बालकृष्ण श्रीखंडे ' प्रेम ' यांनी ३ फेब्रुवरी १९८२ ला या जगाचा निरोप घेतला.
क्यों जुल्म इतना हम पर सरकार हो रहा है?
हम न्याय चाहते हैं , इन्कार हो रहा है।।
दिल दर्द से धड़क कर ,बेजार हो रहा है।।
पा करके हमको दब्बू, सब लोग हैं सताते
फर्जी तुम्हारा देखो ,शहदार हो रहा है।।
बर्बाद कर रहे हैं, वो आशियाॅं हमारा
उनका वतन शुरू से, गुलजार हो रहा है।।
हम थे स्वतंत्र घर में ,गुजरा है वह जमाना
जो था कभी फिरंगी , सरदार हो रहा है।।
कर दो रिहा कहा तब ,मुद्दत कफस में गुजरी
ठहरो जरा अभी तो, इजहार हो रहा है।।
दम घुट रहा है लेकिन, कुछ साॅंसे चल रही हैं
खंजर दिखाकर कहते, उपचार हो रहा है।।
दुर्भिक्ष यह पड़ा है ,महॅंगी रुला रही है
तब प्रिंस का भला क्यों ,सत्कार हो रहा है?
भेजे हैं जेल नेता , बागी सभी बताकर
गफलत में था जो हिंदू होशियार हो रहा है।।
हस्ती हमारी मेटो, राजी हैं हम उसी में
अब ' लौ ' यही तुम्हारा ,दरकार हो रहा है।।
भारत है घर हमारा ,औरों का घर नहीं है
मक्कार मूजियों का, हरगिज ये घर नहीं है।।
हम जिस्मों-जाॅं है उसकी ,वह जान है हमारी
कट जाए धड़ से जो सिर ,ये सिर वो सिर नहीं है।।
कातिल ने तेंग खींची, या जान की है बाजी
सर पर बॅंधा कफन है ,मुतलक फिकर नहीं है।।
आते हैं इम्तहाॅं को ,अब यार शेर दिल के
डरपोक बुजदिलों को, इस जाॅं गुजर नहीं है।।
सीना खुला है अपना, खंजर को भोंक दें वो
आतें भी चीर दें वो ,लब पे जिकर नहीं है।।
भरम दिला रहे हैं, बदलेगा रंग जमाना
उनको किए सितम की, कुछ भी खबर नहीं है।।
खरादा कभी गया था चाॅंद
तभी से आई है यह चमक।
छटे हैं उड्डगण छोटे -बड़े
निराली उनकी भी है दमक।।
सदा से रहते होंगे साथ
नया होगा वियोग का रोग।
रो पड़े होंगे प्रेमी -ह्रदय
हुआ होगा जब कठिन वियोग।।
बढी़ थी प्रेम -चंग की डोर
गई थी फिर वह कर से छूट।
हुआ होगा वह ह्रदय विदग्ध
गया होगा फिर तड़ से टूट।।
बाल -रवि को निज डलिया मान
उषा सुंदर साड़ी पहने।
चली है नभोद्यान की ओर
कुसुम चुनकर गूॅंथे गहने।।
कल्पना खग को चुराने की
न कोई माने या माने।
कहूॅंगा मैं तो किंतु अवश्य
प्रकृति ने छिटकाए दाने ।।
अपने स्वेद बिंदु से सींचा ,जिसने सूखे मैदानों को।
वह जग पालक तरस रहा है ,स्वयं धान के दानों को ।।
लाखों पेट भरे हैं जिसने,अपना दुबला पेट काटकर।
वही विश्व का जीवन दाता ,स्वयं जी रहा धूल चाट कर।।
जो स्वामी का पेट ना पाले ,वह खलिहान बदलना होगा।।
आज विधान बदलना होगा।
वस्त्र बनाने को बाॅंधा था ,निज जीवन का ताना-बाना।
विश्व ढाॅंपने हित दे डाला, अपना सारा नया -पुराना।।
जग की लाज बचाने वाला ,स्वयं नग्न रहता जीवन भर।
एक चीथड़ा मिले जिसे ,वह कैसे ओढ़े नीचे -ऊपर।।
निर्माता का अंग न ढाॅंके,वह परिधान बदलना होगा।।
आज विधान बदलना होगा।
मैं रचना हूॅं उस सृष्टि की, जिस सृष्टि ने तुम्हें रचाया ।
उस मिट्टी के अंग हैं मेरे, जिस मिट्टी ने तुम्हें बनाया ।।
फिर मुझसे इतनी नफरत ,क्या मैं तुम सा इंसान नहीं हूॅं?
फिर तुममें- मुझमें अंतर क्यों ,मानवता की शान नहीं हूॅं?
भेदभाव जिसने उपजाए ,वह इंसान बदलना होगा।।
आज विधान बदलना होगा।।
मैं निशा में थी तुम्हारा पथ निरखती,
चाॅंद भी मुझसे बहुत ही दूर था प्रिय।
कह न पाई मैं हृदय की पीर चुभती,
क्योंकि मेरा प्यार भी मजबूर था प्रिय।
पूछ लेना प्राण तुम इन तारकों से,
कौन बैठा रात भर दीपक जलाए।।
पूछती है रजनीगंधा अब विहॅंसकर,
कौन है वह मीत तुमको छल गया है?
कौन है वह सीप में दृग की अचानक,
एक मोती की तरह जो ढल गया है?
पूछ लेना तुम निशा के हर प्रहर से,
कौन बैठा रात भर पलकें बिछाए।।
रात भर बारात शलभों की शिखा पर,
प्रणय का उपहार लेकर जल गई प्रिय।
मिलन की मधु चाह मेरी भी मचलकर,
वेदना का ताप सहकर जल गई प्रिय।
पूछ लेना दीप की जलती शिखा से,
कौन बैठा रात भर लौ उर लगाए।।
बीन के यह तार उन्मादक थिरक कर,
रात भर आवाज देते रह गए प्रिय।
गीत के स्वर कंठ तक आए मगर फिर,
अश्रु बनकर लोचनों से बह गए प्रिय।
पूछ लेना तुम विकल उस रागिनी से,
कौन जिसने रात भर हैं गीत गाए।।
रात भर मैंने मिलन के गीत गाए,
पर ना मन के मीत अब तक लौट पाए।।
संयोग -
कंत लखै बाल को , लखै कंत को बाल
प्रेम विभोरी भोरीसी ,खोय खड़ी सुध ख्याल।
वियोग -
प्रेमी बिरही आह भरी, चंचल दिन रैन
चाह चिता अंगार में ,जरि -मरि पावत चैन ।
करुण-
शलभ जला जब प्रेमवश ,हुआ दीप मुख म्लान
ॳॅंसुवा ढारत जल रहा ,पल-पल वर्ष समान।
हास्य-
चढ़न चले थे ठाठ से ,दोनों टाॅंग पसार
मुॅंह के बल औंधे गिरे,हॅंसे साथ के यार।
वीर-
प्रबल मर्द की खड्ग से, कट - कट गिरते मुंड
सम्मुख टिक सकता नहीं, डरपोकों का झुंड।
रौद्र -
सह जाता चुपचाप जो, खाकर पद प्रहार
कायर ऐसे मनुज का ,जीवन है धिक्कार।
वीभत्स
सूरा क्षत्री वीर जैं ,लड़ें सचाई हेत
अंग -अंग कट छट गिरे, तऊ न छांड़े खेत।
शांत -
दुख सुख समता मानि के ,रहो प्रेम तल्लीन
आदि ,मध्य ,अवसान में, रहो सरस रस लीन।
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नायक भेद-
बिलमी बोलो कित रही ,कहाॅं बॅंटो चित ध्यान
लाली ओटन मे लसी ,कहाॅं रचायो पान ।
नायिका भेद-(मध्या )
रीझत, खीझत , लजति है , लजवंती सी नारी
पिया देखी झुक झुक परे ,चितवत घूॅंघट टारी।
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विविध भाषा बोली-
ब्रज-
बगरयो बीथिन बाग में , बेलिन बेली बसंत
सरसों सी पीयर भई, नारि बिना निज कंत ।
अवधी-
बरखा से ॳॅंसुवा ढरे , दीरघ स्वाॅंस गंभीर
कोयल कूक सुनाए क्यों, मारत हिय में तीर।
बुंदेली-
गुन न हिरानो जगत से, गुन गाहक हीरान
गुनिया बिनु मुकतान की ,कौन करे पहिचान ।
भोजपुरी -
नैना जियरा खातु है ,निकसत कठिन मरोर
ॴॅंजन ॴॅंजे करति है ,कुटिल चोट चित चोर।
उर्दू-
जबरदस्त ज़ालिम संभल, होगा जल्द तबाह
जादू का रखती असर ,जिगर जले की आह।
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ज्ञान उपदेश भक्ति -
तीरथ व्रत राखे कहा ,कहा गंग जल पान
हिरदो जाकर सुद्ध है, मानव वही महान।
जब लों तन में साॅंसु है , कह ले मुख से राम
यही नाम के उच्चरे, सुधरत सारे काम ।
सगुन निगुन में भेद क्या , भेद रहित इक सार
पंथ दोहुन को एक है, प्रेम ,प्रणय ,अभिसार ।
तुम बिन मेरो कौन प्रभु, मैं हूॅं दीन अनाथ
बाधा जग की हरण करि, कीजे मोहि सनाथ।
सोचता हूॅं शून्य क्या है, चाॅंद किसकी रजत छाया,
आज सूने पंथ पर यह ,दीप है किसने जलाया?
वेदना की रागिनी यह ,कौन मन में गा उठा है,
ऑंसुओं के आवरण मे, कौन आकर मुस्कुराया?
विश्व परिवर्तन भरा है ,कौन है ,किसका यहाॅं पर,
चल रही कब से न जाने, है न मंजिल का पता कुछ,
राह को मंजिल बनाने यह अनोखा कौन आया?
पी गया मैं तो हलाहल, ले किसी का नाम है प्यारा,
विश्व क्या है, रंगशाला और जीवन एक नाटक,
आज फिर किसने हटाकर, सत्य का दर्शन कराया?
तू है जीवन विश्व प्रकाश।
गुल में, गिल में ,
जल में , थल में,
तेरा है आभास।।
कल -कल स्वर में,
शुचि -भूधर में,
नील शिखर के
सुंदर घर में,
जुगनू के वर -प्रभाकुंज में ,
कौतुक हास विलास।।
अगणित तारे ,
तन-मन वारे,
प्रकृति सॅंवारे
लगते प्यारे
सूर्य चंद्र में
रूप तिहारा ,
करता मृदु -मृदु हास।।
खग-कलरव में,
कीर्ति-विभव में,
वट -पल्लव में,
उद्भव -भव में।
सुषमा प्रेरित मन -मंदिर में ,
करता सृष्टि -विकास ।।
तू ही सृजन है ,
तू ही भजन है ,
प्रेम मिलन की
तू ही लगन है
दीन दुखी का
त्राणनाथ तू ,
मौलिक सुलभ -सुपास।।
तू है जीवन विश्व प्रकाश।।...........
एक माॅं के पुत्र प्यारे ,गोद में पले हैं दोनों
जाति ने क्यों मिट्टी ,इनकी बदल डाली है?
ऊॅंचे की महत्ता ,छोटे बिन रहती है कब ,
सुदामा की दशा ,दानी कृष्ण ने सॅंभाली है ।
शबरी के बेर झूठे, खाके दिखला दी प्रीत,
प्रेम की मिठास कुछ और ही निराली है।
सत्य की कसौटी चाहो, गले से लगा कर कहो
स्वागत करेंगे भाई ,चलो घर खाली है।
छूत का अभूत भूत,भेद को नसाय भ्रात,
ज्ञान को प्रकाश -आस भानु चमकाइए।
अंग के अपंगु के, न ह्रास कीजे बंधुन को ,
जनम के साथी -संगी बैर न बिसाइए।
दान और दया के पात्र, पतित सुपात्र प्यारे ,
देश धर्म नातेहु तो इन्हें अपनाइए।
वर्ण को अछूत ,प्रजा देश को डुबोती नष्ट,
जड़ से, समूल इसे काट के गिराना है।
शक्ति को जुटाके ,छिन्न एकता के रज्जू बीच,
पशुता का मद खंड -खंड हो दिखाना है।
पतितों के, पावन के ,भारत में जान डाल,
वैभव स्वतंत्रता का कर्मयुग लाना है।
ठुकरा किस निष्ठुर के उर से
यह आह -लता द्रवमान हुई ?
किस निर्जन में शशि के
कर -पाश से चंचल नन्ही सी जान हुई?
कब से तुम कानन हार बनीं ,
कब से हरियाली की शान हुई?
कर गान रही किसकी छवि का,
कवि से कब से पहचान हुई?
कब वायु की मस्त ठिठोलियों से,
कुछ कंप हुआ तन में मन में?
कब उषा की स्वर्णिम -श्री विकसी,
सखी आपके उज्ज्वल आनन में?
कवि से न छिपो, कह दो कितने दिन ,
खेल सकीं इस ऑंगन में?
प्रिय के उर से मिल के वो
अनंत सुहाग मिला किस निर्जन में?
उस घोर तिमिस्त्र निशा में जहाॅं ,
मग शूल लतादिक घास घनी ।
सुन केहरि, व्याघ्र , श्रृॅगाल करी
रव नीरव भीत हुई रजनी?
कल नूपुर शब्द सुनाती हुई ,
अरु छोड़ती भाल प्रसून चली ।
करने को चली अभिसार कहाॅं ,
किससे अनुराग भरी सजनी ?
नभ से शुचि बैंगनी सारी सजी ,
वन देवी की फूल किनारी भली।
शिर माॅंग में बाल दिवाकर से
लाल सुहाग की श्री रच ली ।
पिघला हुआ निर्मम मानस है,
तुम ही कहो उर -भार है क्या?
वन मे शिर शूल शिला पथ से ,
टकराना ही सुस्थिर प्यार है क्या?
सजनी! सुलझा दो मेरी उलझी ,
यह पावन प्रेम की धार है क्या?
कल गान सुना सुख से बहना ,
गल जाना ही जीवन सार है क्या ?
संकलन : संध्या टिकेकर
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