रचना खरे,रामचन्द्र किल्लेदार,रंजना मराठे,लक्ष्मीकांत काळूस्कर, वसुधा गाडगीळ, विजय नरसिंह जोशी, विवेक सावरीकर 'मृदुल', विनीता राहुरीकर, विशाखा मुलमुले, वीणा पाठक, वैजयंती दाते, शोभा भिसे, सुधीर देशपांडे, स्वरांगी साने,स्वाति श्रोत्री,संध्या कुलकर्णी, संध्या भराडे
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रचना खरे
१. धरा की व्यथा
जंगलों को काटते सीमेंट के जंगल
खेतों को निगलते विकास के मंजर
कटने के इन्तजार में बेबस से है तरू
बेघर होने के खौफ में सहमे है पशू
ये दरकते पहाड़ व सिकुड़ती नदियाँ
दहकते नभ-थल व सिसकती हवाएँ
करतूत उसकी कर रहा
लिप्सा की अति व स्वार्थ का खेला
फिर भी कभी न मांगती हिसाब
ये सहनशील धरा
बड़ी बड़ी बैठकों में होते
बस काग़ज़ी वादे
अफसर नेताओं के जेबों तक
रह जाती करोड़ों की योजनाएँ
जानता है वह....जानता है वह
कि प्रकृति की लाठी की
नहीं होती आवाज़
लेकिन लोभी भूल जाता है
देना होगा उसे यहीं सबका जवाब
२. चीख
सुनसान खामोशी को चीरती एक चीख़
असहाय, निर्बल, अकेली
निर्दयता की पराकाष्ठा से
लड़ती, गिड़गिड़ाती
वहशी दरिंदों की हवस से
अपनी संपूर्ण ताकत से संघर्ष करती
वह चीख़
वह चीख़
गहरी वेदना भरी देह से
घायल मन में खूब विलाप करती
छिन्न विच्छिन्न अस्मत बचाने वह
गुहार लगाते लगाते थक जाती
लेकिन सोई हुई इंसानियत के
दिलों-दिमाग तक
कभी नहीं पहुँचती वह चीख़
वह चीख
अंधेरी गलियों में
इन गिद्धों, भेड़ियों की हैवानियत से
निराश, बेबस, निढाल हो
सदा के लिये खामोश हो जाती
और हम फकत हाथों में मोमबत्तियां ले
या राजनीतिक रोटियाँ सेंकते
सूखे आँसू बहाते हैं
३. मेरे बच्चे
इस तरह अचानक तेरा चले जाना
दिल दिमाग सुन्न करता है
खुद को तेरा यूँ खत्म करना
रह रह कर कचोटता है
नौ महीने लगे थे तुझे आकार देने में
नौ पल भी न लगे तुझे सब तोड़ने में
यदि एक क्षण एक क्षण तू ठहर जाता
तो शायद वह दुष्कर पल गुजर जाता
बाबा की पथराई आँखें
अब दरवाजे से नहीं हटती
छत की ओर ताकती उनकी रातें
काटे नहीं कटती
क्या भूल हुई थी हमसे ?
कि तू सदा के लिये रूठ गया
क्या इतने कठोर रहे थे हम ?
कि तूने एक बार भी मुड़कर न देखा
काश एक बार
काश एक बार तुझे पढ़ लेते हम
तेरे खामोश रुदन को सुन पाते
और तेरा दर्द साझा कर लेते हम
काश एक बार....
एक बार तेरी उलझन को सुलझा लेते
तेरे दोस्त बन जाते और
दिल की गहराई को नाप लेते
काश एक बार.....
एक बार मेरी गोद ने सिर रख तू खूब रो लेता
इन कांधों के सहारे तू चैन से सो तो पाता
मेरे बच्चे काश एक बार
काश एक बार ......
कितने काश कितने काश
अब रह रह के मन में आते है
और नश्तर बन छलनी करते है
एक बार गोद में सिर रख
तू खूब रो लेता मेरे बच्चे
--------------------- ©रचना खरे
रामचन्द्र किल्लेदार
बंजारों - सा रहना
जीवन का कुछ पता नहीं है
बंजारों - सा रहना सीखो ।
नाम भले ही बड़ा हो लेकिन
अंजानो - सा जीना सीखो ।
कोई कितना प्यार करेगा
यह तो उस पर निर्भर है
कोई कितना संग चलेगा
यह भी उस पर निर्भर है
राह चुनों तुम केवल अपनी
और उसी पर चलना सीखो
बंजारों - सा सुख तो साथ
चलेंगे उनसे
आँख मिला कर चलना होगा
दुःख भी साथ चलेंगे उन संग
आँख मिला बतियाना होगा
सुख दुख जुड़वा भाई हैं
उनका सा निभाना सीखो
बंजारों - सा।
कौन पराया कौन है अपना
यह जीवन है केवल सपना
रंगरूप से अलग-अलग हैं
एक अंश के अंशी हम सब
भेदभाव क्यो करते उन संग
सम भावों से जीना सीखो
जीवन का कुछ पता नही है
बंजारों - सा रहना सीखो
अंजानो - सा जीना सीखो।
मौन
कभी-कभी
मैं घंटों मौन रहता हूँ
और उन क्षणों में
इधर - उधर
प्रकृति के विभिन्न रूपों को
निहारता हूँ ।
फिर
मन ही मन सोचता हूँ
हम ‘उसके’ द्वारा प्रदत्त
अंगों का गलत उपयोग करतें हैं ।
और
हमेशा इसकी - उसकी
अड़ोसी - पड़ोसी की
निंदा करते रहते हैं ।
काश ……
हम मौन रह पाते ,
और यह समझ सकते
कि मौन रहने में
कितना आनन्द है !
आत्म – चिन्तन
यह रोज- रोज की महफिलें
यह उत्सव, यह मेले
जहाँ मिलते हैं बतियाते हैं
हँसते हैं खिलखिलाते हैं।
कहीं न कहीं कर रहे हैं
हमे भीड़ के बीच अकेला।
सबसे मिलने - बतियाने में
हँसने-हँसाने में
फुर्सत ही नही हमें
खुद से मिल लें
कुछ अपने बारे में खुद से कह लें |
हम क्या हैं क्या हो रहें है ?
क्या करने आए थे क्या कर रहे हैं ?
हम वही तो कर रहे हैं
जो हमारे मित्र प्रशंसक चाहते हैं ,
हम वह नहीं करते
जो हम खुद चाहते हैं |
कुछ देर एकांत में बैठे
सोचें
यह उत्सव,यह मेले
हमें कर रहे हैं
अकेला खुद से भी |
--------------- रामचन्द्र किल्लेदार
राहुल फ़राज़
1.
तुम हमारा साथ दोगे, सब कहने की बातें हैं !उम्र भर साथ रहोगे ? सब कहने की बातें हैं !
दिमाग मे चलनें वाला वल्वला है ये, ना कोई दिवानापन !
मन का भटकना है ये फ़ितुर दिल का, ना कोई बंजारापन !!उभरता है हर बार उल्टा, अक्स असली आइनें मे ही !सच बोलता है, हर पल आईना, सब कहनें की बातें है !!तुम हमारा साथ दोगे......
बिछ्डकर किसी ना किसी से हम, जीते रहते हैं हरपल !करके बहाना मातम का हम, बस्स पीते रहते हैं हरपल !!जीने वालों का साथ देते नही, मरनें वाले की बात क्या !!प्यार, वफ़ा, दोस्ती और रिश्ते , सब कहने की बातें हैं !!तुम हमारा साथ दोगे......
किसी के दामन मे फूल सजाना, सब से नहीं होता !किसी के आंसु अपनी आंख मे लेना, सब से नहीं होता !दौलत के गुरुर में सबके, कटवा देना इक इक हाथ !"फ़राज़" इश्क की मिसाल बनाना, सब कहनें की बातें है !!तुम हमारा साथ दोगे......
2. प्यार, वफ़ा, इश्क, मोहब्बत कुछ नहीं होता सौदा होता है जज्बा़तों का,और कुछ नहीं होता
वादा भी करते हैं वो ख्वॉबों में मिलेंगेजागता रातभर रहता हूं,और कुछ नहीं होता
चाहा के मांग लूं एक बोसा उल्फत की निशानीहोठ थरथरा के रह जाते है,और कुछ नहीं होता
साथ थे तो वादे करते थे जिने और मरनें के जिंदगी मुहाल होती है वादों से,और कुछ नहीं होता
खून ए दिल से रोज उसको ख़त लिखता है 'फ़राज़'कलम की धार पैनी होती है,और कुछ नहीं होता
3.बिमारे दिल की जैसे दवा हुए बैठे है हम आजकल उनसे खफा हुए बैठे है
ना रास्तों का पता,न मंजिल का नां कारवां की तलाश,ना साहिल कीसोया नहीं मैं जाने कितनी सदियों सेआज याद आया,तो हिसाब लिये बैठे हैहम आजकल......
फिर वो रूठ जायेगी मेरे मनाने के बावजूदफिर आंसू बहायेगी मेरे हसांने के बावजूदमुझसे भी जज्ब होता नहीं ये आलम,वो आये तोहम आज अपनी ऑखों में,सैलाब लिये बैठे हैहम आजकल......
मेरी रूह तक पहुंचे थे तुम,कभी ऑंखो के रास्तेमुझपर ही खत्म होते थ्ो तेरी उम्मीदों के रास्तेसोचता हूं सौंप दूं तुम्हे वापस रिश्तों के अवशेषबेडियां जो पांवो में थी,हाथों में लिये बैठे है हम आजकल ........
क्या खोया,क्या पाया और नहीं सोचा जातारिश्तों का यूं बिखरनां,और नहीं देखा जाता 'फ़राज़'इन रिसते जख्मों पर मरहम तो रखकब से हम अपनीं आंखों में नमक लिये बैठे हैहम आजकल उनसे खफा हुए बैठे है..........--------------------------------------राहुल फ़राज़
रंजना मराठे
ये ज़िंदगी के रास्ते
ये ज़िंदगी के रास्ते
बडे ही अजीबो गरीब
बडे ही खतरनाक है
.
मिलती है इसमें
आडी तिरछी राहें
कहीं घाटी कहीं ढलान
कहीं सिकुडन है
पर कोई नहीं जानता
कब कौन कहाँ पहुँचे.
कौनसी मंजिल तय करना है
कोई कहता ज़िंदगी प्यार है
कोई कहता ज़िंदगी विरान है
कोई अपने दुख में मशगुल
किसी को मिलती रास्ते की धूल
फिर भी हम सफर करते हैं
पग पग पर चूभते शूल यहाँ पर
ह्रदय टूटता शब्दों के अंगारो से
मन मंथन करता है विकल्पों पर
उदास होकर भी जी लेते हैं
कभी कभी मिलता है
इतना प्यार यहाँ पर
जन्नत की हर खुशी
छाई रहती है आलम पर
हर कोई सोचता
मुझ जैसा नसीब कहाँ
हजारो साल जीऊं इसी तरह
पर कोई नहीं जानता
कब छाए मातम यहाँ
यही तो मुसीबत है.
केक्टस का सन्देश
जंगली फूलने चमन के फूल से कहा.
तुम्हारी ये नजाकत ये अदा
आशिकों का दिल हरती है सदा
पर प्रतिकूल झोकों के थपेडों से
बहुत जल्दी जाते हो मुरझा
मुझे देखो मैं तुमसे
बहुत निराला हूँ
मैंतो प्रतिपल विषमता
में ही पला हूँ
ममता मोह दुलार से
कोसो दूर खडा हूँ
मैं अपने बेढंग रुप रंग से
अपनी काटों भरी जीभ से
किसी को नहीं भाता
फिर भी फूल तो हूँ कहलाता
तुमसा स्नेह ना मैने पाया
हरदम मिला संकट का साया
आंधी आये या तूफान
सदा खडा हूँ सीना तान
गर्मी हो या हो वर्षा की धार
आये पतझड या बहार
आतप में ना मैं कुम्हलाता
शिशिर भी ना मुझे सताता
सबको मैं यह सिखलाता
रहो सदा तुम एक समान
रहो सदा तुम एक समान
ढाई आखर
ढाई आखर जन्म से
जुडे हमारे साथ
उसने ही दी हमें.
जीवन की सौगात.
ढाई आखर कष्ट के
झेलना बडा दुश्वार
कष्ट से जो ना घबराए
उसका सुखकर हुआ संसार
ढाई आखर दुख के
पचाना नहीं आसान
जिसने उसका मर्म जाना
बन गया वह महान
ढाई आखर पथ्य का
है स्वास्थ्य का राज
निरोगी जीवन उसने पाया
चला जो इसके साथ
ढाई आखर सत्य का
उसपर चलना दिनरात.
वही तपस्वी कहलाया
अपनाई जिसने यह बात
ढाई आखर प्रेम का
दिल जीतने का राज
जिसने यह जान लिया
उसके सफल हुए सब काज
ढाई आखर कर्म का
करो निरन्तर काम
मेहनत जब रंग लाएगी
जीवन होगा खुशहाल
ढाई आखर मृत्यु का
है जीवन का सार
जिसने यह जान लिया
उसका बेडा पार.
------------------------रंजना मराठे
लक्ष्मीकांत काळूस्कर
1.
कौए काबिज हो गये घर पर
आदमी आ गया मुंडेरो पर
मछली को भरोसा नहीं पानी का
कुछ विश्वास जमा है मछेरों पर
उलटी बह उठी,धार नदिया की
फर्क क्या पड़ा बालू के ढेरों पर
उजाला पागल तो नहीं हो बैठा
जो कालिख पोत रहा अंधेरों पर
अब तो सिर के बल चलना सीखो
पैर कहाँ ले आए हैं तुम्हें ढ़ोकर
वे किसी जादूगर से कम नहीं हैं
आम खा रहे हैं,बबूल को बो कर
सुना है स्वप्न साकार होने वाले हैं
बहुत कुछ पाएगा कुंभकर्ण ही सो कर
अब इस बात को क्या कहा जाए, बोलो
राह पूछता है मील का पत्थर हो कर
फूल से नाजुक खंजर से तेज लगती है
बात आती है सामने जब गजल होकर.....
2.
बृज हुए,गोकुल हुए,मथुरा हुए पर साथ ही
प्यारे बरसाने हुए होते तो कोई बात थी.
यूं किसी के प्यार में पागल हुए तो क्या हुए
खुद के दीवाने हुए होते तो कोई बात थी.
जग से बेगाने हुए, ये बात भी कुछ कम नहीं
खुद से बेगाने हुए होते तो कोई बात थी.
लिख के अफसाने हजारों तुम मुसन्निफ हो गये
खुद ही अफसाने हुए होते तो कोई बात थी.
गांव,बस्ती,शहर,दुनिया सब से वाकिफ हो गये
खुद को पहचाने हुए होते तो कोई बात थी.
3.
उन दिनों जब चिठ्ठियाँ मिलती रही, लिखते रहे
यूं कहो इक आईने में, जब कभी दिखते रहे.
क्या कहें,जब घाव गहरे,दर्द था बेइंतहा
तब भी हम मुस्कान होठों पर लिए हँसते रहे.
डालियाँ जो झुक गईं, पाना था जो उनको मिला
और हम ऊंह के जूनूं में ताड़ से तकते रहे.
यार दुनिया भी गजब है,सीटियाँ सुनती रही
और हम अंदर कुकर में दाल से पकते रहे.
यूं तो उनकी जिंदगी को अर्थ हमने ही दिया
फिर भी उनकी नज़र में हम तो महज नुक्ते रहे.
4.
जब तलक सीने में दिल है दिल्लगी कायम रखो
और अपने प्यार की दीवानगी कायम रखो.
भीड़-भागमभाग, कोलाहल से बच कर शाम को,
कुछ टहलने के लिए, वीरानगी कायम रखो.
है तो मुश्किल, सैकड़ों जब मुश्किलें हों साथ में
हो सके तो दिल में उसकी याद भी कायम रखो.
है कठिन उस राह पर चलना कि, जो आदर्श हो
कम से कम उस राह की कुछ बानगी कायम रखो.
कब्र पर दो-चार घूंसे और जम कर गालियाँ
बाद मरने के मेरे तुम दोस्ती कायम रखो.
----------------------------लक्ष्मीकांत काळूस्कर
वसुधा गाडगीळ
लहर.
तुम्हारा उठना , तुम्हारा गिरना,
गतिमय बन, हौले से रेत में,
शांत हो मिल जाना,
देता जीवन -प्रेरणा....
लहरमाल तुम , गहन विस्तार तुम,
उत्थान -पतन तरंगिणी,
चंद्राकर्षण सह मौज करती,
सकल सिंधु स्वामिनी....
तुम्हारा नर्तन ,तुम्हारी थिरकन,
तुम्हारा जल - आलोडन,
संदेश जीवन - स्पंदन,
संदेश कर्तव्य - परायण....
चपल ,चंचल, द्रुतवती, रुपसी,
तुम उत्ताल तरंगण,
उत्तुंग शिखर बन नभ स्पर्शन,
ज्यों,
विराट सम्मुख समर्पण....
बुझी ,थकी सी बैठती हूं,
मैं जब जलधि तीरे,
तुम हर्षित,फेनिल, बौछार बन,
रिझाती ह्रदय को मेरे....
मेरी नौका की धडकन तुम,
कल्लोल, तरंग, हिलोर,
तुम हो जीवन, हंसती- खिलती,
तुम अठखेली, उर्मिल -लहर....
गरल-मुक्ति....
मेरे शहर की,
गलियों में, चौराहों में, झुग्गी -झोपडियों, हवेलियों, होटलों में...
नदी - तालाब , पेड में, लताओं में,
टहनियों में , फुनगियों में,
कहीं झुंड में, कहीं अकेले में,
दिखते हैं रंगीन फूल और कलियां...
करीब जा निहारती हूं ,
उन्हे जब कौतुहल से,
हो जाती हूं निराश....,दिखती हैं मुझे जब.... मुंह चिढाती...
हल्की - फुल्की,
नश्वरता का भारी - भरकम वरदान लिये.
अव्यक्त भाषा...
देह निष्प्राण,
प्रतिदिन खरीददार,
भविष्य अनजान,
जीवन मंझधार,
न मान, न सम्मान,
पल-पल घोर अपमान,
वितृष्णा भरा,
जीवन तिरस्कार.....
मिट रही मानव की भूख,
बेबस ह्रदय, अशांत,
किंतु...
तृप्त उदर की भूख..
उम्मीद , किरण, जीवन की आशा,
कब मौन टूटेगा, समझेगा जगत,
अव्यक्त भाषा.....
मैं भी मानव , जगत का अंश,
गलित , शापित, भोग रही..दंश,
जीना चाहती मैं अपनों में,
"ज़िंदगी " देखती हूं सपनों में....
"ज़िंदगी"देखती हूं सपनों में......
---------------------------------वसुधा गाडगीळ
विजय नरसिंह जोशी
मेरी कविताएँ
मेरी कविताएँ
क्या कविताएँ हैं ?
कविता का कुछ
आकार-प्रकार है
तो मेरी कविताएँ
नहीं बैठती
किसी चौखट में
कविता यदि
जगाती है किसी को,
तो मेरी कविताएँ,
नहीं चीखती
किसी के कानों में
कविता भरमाती है
किसी को प्रेमजाल में तो,
मेरी कविताएँ
नहीं खेलती
किसी के अंतर्मन से
कविता
क्रांति की ध्वज वाहक है तो,
मेरी कविताएँ
हाथ में मशाल लेकर
खड़ी नहीं होती हैं कभी
मेरी कविताओं की
कविता की हैसियत नहीं है,
नहीं हैं वे कविताएँ,
बस, वो इक संवाद है
द्वन्द्व है
मेरे और मेरे ही आईने से।
मौन जादू है
मेरा मौन जैसे जादू है,
कविता रचने लगता है मन में
हौले हौले,
आँखे बंद होती हैं ,
होती है सुबह धीरे धीरे,
सूर्य की किरणें भर देती हैं
उजाला हृदय में,
चिड़ियों की चहचहाट के मधुर स्वर
देह को कर देते हैं झंकृत
मौन
भरी दुपहरी में
नीम की छाँव तले बिठा देता है,
और जिंदगी का सुकून से है गहरा नाता
बता रहा होता है
नित नई कहानियाँ गढ़कर
आँखे बंद हैं
मौन,
ले जाता है शाम ढले
किसी सागर तट पर,
जहाँ
बीच सागर से उम्मीद के स्वर,
किसी कश्ती में हो सवार
आ रहे होते हैं तट की ओर
होती है रात,
मौन तो जैसे आतुर ही रहता है
इस घड़ी का,
ले जाता है सीधे चाँद तारों से झिलमिलाते
स्वप्न लोक में
और थमा देता है जीवन संगिनी का हाथ
मेरे हाथों में
मौन
जैसे कोई जादू है,
है न!!!
मैं और तुम
मेरी चाहत
तुम मेरी परिधि में ही रहो,
और तुम्हारी शिकायत की
मैं तुमसा नही,
कितनी कश्मकश और
द्वन्द से घिरे हैं
मैं और तुम.
देखो सदियों से,
मुस्कुराते हैं फूल काँटों में और
भँवरे गुनगुनाते हैं फूलों के कानों में,
फूलों को शिकायत नहीं है
काँटों से,
और
भँवरे भी दुखी नहीं हैं
अपने रूप रंग से,
ये मधुर खूबसूरत अद्भुत स्नेह बंधन,
निर्द्वंद और निर्मल
काश मैं तुम्हारे दुखों से
संवेदित हो जाऊँ और
तुम भी मेरी व्यथा को समझो,
तुम्हारी ऊंचाई से
न हो कोई शिकायत मुझे और
मेरी न्यूनताओं से
न हो कोई घृणा तुम्हें
तुम सत्य हो, सत्य रहो,
और
मैं भी इसी सृष्टि अनुरूप,
इतना ही तो जानना हैं हमें,
स्वीकारना है हमें,
बस इतना कर लें हम,
बने रहेंगे,
अपने अस्तित्व के साथ
सुखद, 'मैं और तुम'
--------------------- विजय नरसिंह जोशी
विवेक सावरीकर 'मृदुल'
मैंने पूछा
मैंने पूछा चलोगी
तो उसने माथे पर
एक छोटी सी टिकुली लगा ली
और दुनिया के हज़ार हज़ार रास्तों पर चल पड़े हम
मगर एक दिन जब वह बोली
कहीं दूर चलने को
तो मैं लैपटॉप को गोद लिए बैठा रहा
जबकि वह रसोई में
आँख से पानी बहाती रही
प्याज़ छीले बगैर
मैंने पूछा सुनोगी कुछ
और उसने ऐसे चूमी
मेरी गाने की डायरी
कि सारे गीत
उसके नारंगी होठों से लिपट गए
मेरा छोटा सा घर महफ़िल बन गया
मगर एक दिन कह दिया उसने मुझे
गजल गाने को और
मैंने चिढ़कर कहा -घर कोई महफ़िल है
मैंने पूछा देखोगी कुछ
तो उसने मेरे कंधे से सर टिकाकर
मूंद ली पलकें
और मेरे वजूद को अपने भीतर उतार लिया
जबकि ठीक ऐसी ही घडी में
मैं उसके कपडे उतारने में रत था
उसने ये सब किया क्योंकि औरत थी वह जड़ों तक
और मैं ये सब नहीं कर पाया
क्योंकि मैं एक ऐसे तने का जिस्म था
जिसकी जड़ें ही नहीं थीं.
पहली बारिश की ग़ज़ल
बहुत दिनों के बाद आंख भर देखा
दुआं की मानिंद झरता शहर देखा
हलक भर चांद पी आये बादल सा
जवां जवां सा आज हमसफर देखा
खुदा जाने कहाँ उड़ी नींद आंखों से
मैंने कल की रात को रातभर देखा
खुशियां बरसात की सहम गई मेरी
जो किसी का टूटता छप्पर देखा
दफ्न है इस जगह पे कई अफसाने
तुमने इस कब्र को ऊपरी नज़र देखा
कमाके लौट तो आ गये हैं वतन अपने
अजनबीवार अपनी गली का दर देखा
बूढ़े चेहरों की सिलवटों में कभी पानी था
नहीं रहा अकेलेपन का जब असर देखा
लहूलुहान हो जाता है वो खुद ब खुद
दोस्त के हाथ जो उठा हुआ पत्थर देखा.
केवल प्लेटफार्म नहीं
प्लेटफार्म नहीं है घर किसी का
फिर भी सबका थोड़ा थोड़ा होता है
इंतजार में कभी न कभी
हर कोई इसकी आगोश में सोता है
पर राहगीर हस्बे मामूल
नाता नहीं जोड़ते इससे
अनिच्छा से बैठते हैं इसकी बैंचों पर
और फर्श पर बैठना पड़े तो
इस पर खूब गरियाते हैं
सफाई की कमियां गिनाते पीक की
पिचकारियां उड़ाते हैँ
पर प्लेटफार्म बुरा नहीं मानता
बुरी से बुरी घटना का
नेताजी की आमद पर गूंजती
चमचों की विरुदावलियां
और विदा लेती बारात में
दुल्हन की सुबकियां
चाय गरम की अभ्यस्त आवाजें
माशूकों की फब्तियां और
पैसे वालों की धमकियां
वो निर्विकार योगी सा सुनता है
मगर जब आधी रात को
बड़े से बड़े स्टेशन पर
जिंदगी कुछ पल को थम जाती है
उन्हीं चंद लमहों में
सन्नाटे का लिहाफ ओढे
वो टहल लेता है इस छोर से उस छोर तक
कोई नहीं जान पाता उसकी उपस्थिति को
बस पुल की सीढ़ियां झनझनाती हैं स्वागत में
कोई मरियल खजेला कुत्ता कान खड़े कर
स्नेह भरी पूंछ हिलाता है
फर्श पर सोया एक अधनंगा भिखारी
सपने में मुस्काता है
आश्वस्त करता सबको तब प्लेटफॉर्म
जैसे मैं हूँ ना कह रहा हो
बांहे फैलाएं शाहरूख खान
करूणा का कंबल ओढ़ाता हर शय को
किसी पीर बुजुर्ग सा नज़र आता है
जाते हुए अपनी बेबसी पर
चंद बैंचें भिगो जाता है
भीड़ में निपट अकेले रहने का दर्द
साझा करते हैं केवल पुल के फौलादी बाज़ू
प्लेटफार्म के दोनों छोर
जहाँ शायद केवल मुफलिस सोते हैं
इस अपनत्व को केवल वही जान पाते हैं
जिनके घर प्लेटफॉर्म पर होते हैं.
माँ थी उन दिनों
घर में उन दिनों कुछ खास नहीं था
न रंगीन टीवी,न फ्रीज और न ही
अनब्रेकेबल चाय के प्याले
पर शुक्र है,माँ थी तब भी
उसकी बीमार आँखों में
हमारे भविष्य के रंगीन
सपने तैरते थे
ठंडक मिल जाती थी उसके
पसीने से तर आंचल की छाँव में
किसी भी संग्रहालय में रखने योग्य
रकाबियों में सुड़कते थे चाय
तो उसी की महक आती थी
सोचता हूं आज
कि क्या कुछ नहीं है घर में
ढूँढता है मन जाने क्यूं
वैसी रंगत,वैसी ठंडक
वही महक
यह जानते हुए भी कि
माँ नहीं रही अब.
--------------------विवेक सावरीकर 'मृदुल'
विनीता राहुरीकर
१.
भली लगती थी बचपन की ठण्ड
क्योंकि उसमें
दादी के चूल्हे की आँच थी
माँ के आँचल की ऊष्मा थी
दादा और पिता के अनुशासन और
सुरक्षा का ताप था।
भाई-बहनों के स्नेह का सेंक था।
एक स्वेटर में भी
निकल जाती थी पूरी ठण्ड आराम से
रात में सो जाते थे चैन से
दादी की कहानियों की रज़ाई ओढ़कर
आज मगर अलमारी भर
गर्म कपड़ों में भी
ठण्ड नहीं रूकती
कपड़ों के अंदर तक
सुई की तरह चुभती है
आज नहीं ठण्ड से बचाने के लिए
दादी का चूल्हा
माँ का आँचल
दादा - पिता का अनुशासन
और भाई- बहनों का स्नेह
आज बस मैं रह गया हूँ
और मेरे साथ है
हड्डियों को कंपा देने वाली ठण्ड
2.
माँस पर खिंची
तराशी हुई,
सुन्दर रेखाएं भर नहीं हूँ मैं
कि तुम मुग्ध लोलुप दृष्टि से
ताकते रहो,
मेरे बाहरी आवरण भर को
जीवन से भरी, चिंगारी सी सुलगती
अंगार सी दहकती
एक लौ भी सतत
जलती रहती है मेरे अंतर में
बाहर भले रेखाओं के घनेरे में
अटक जाती होगी
दृष्टि तुम्हारी
लेकिन अंतर में
उज्जवल प्रकाशपुंज से
दैदीप्यमान हूँ मैं
जो सूरज की तरह
नवांकुर को जन्म भी देता है
और लावे की तरह
भस्म भी कर सकता है
अपने मार्ग में आने वाली
कठिनाइयों को
तुम मेरे आवरण की स्निग्ध
सुंदरता में ही भटक मत जाना
रचयिता और विनाशकर्ता
दोनों की ही संतुलित ऊर्जा का
अंतर में अनवरत बहता
एक निर्झर भी हूँ मैं।
3.
तुम प्रतिरूप हो मेरे पर,
मैं तो साक्षात् जीवन हूँ
सीखा नहीं है मैंने कभी भी,
किसी भी परिस्थिति में हारना
पाताल के अंधेरों से
जलते सूरज तक
मैं हर एक कण में विद्यमान हूँ
तुम चाहे कितना भी कुचलते रहो मुझे
उग आउंगी हर बार
चट्टानों का भी सीना चीरकर
बरगद और पीपल की तरह
तुम कितनी बार भी बाहर उगल दो मुझे
फिर भी बलात्
तुम्हारे फेफड़ों में घुस ही जाउंगी
बहुत जरुरी हूँ मैं तुम्हारे लिए
हवा की तरह
भस्म कर दो चाहे मुझे
लेकिन मैं जन्म ले ही लूँगी
फीनिक्स की तरह
अपनी ही राख से दुबारा
क्योंकि तुम तो सिर्फ प्रतिरूप हो मेरे
लेकिन मैं तो साक्षात् जीवन हूँ.
----------------------------विनीता राहुरीकर
विशाखा मुलमुले
चुनने की प्रक्रिया
चावल चुनने की प्रक्रिया में
हम चावल नहीं चुनते
चुनते हैं उसमें से कंकड़
इसी तरह का बर्ताव हम
अन्य अनाजों के साथ भी करते हैं
कहते कुछ हैं , करते कुछ हैं
यही आदतें कब बन जाती हैं हमारा स्वभाव
हम बूझ नहीं पाते हैं
आहिस्ता - आहिस्ता
सुख - दुःख की थाली से हम
चुनने बैठते हैं सुख
और दुख चुन लेते हैं
तुम और मैं
हम मान्यताओं से जुड़े हैं ,
हम वैचारिक रूप से भी जुड़े हैं ,
हम एक ही दृश्यमान के सूर्य , चंद्र , ग्रहों से भी जुड़े हैं
हम एक ही नदी एवं एक ही ग्रामदेवी को पूजते
एक ही ग्राम में बसे हैं
बस चार दीवारों के पार तुम्हारा घर है
और
चार दीवारों के भीतर मैं हूँ ।
इस सदी में भी
चहकती हो मुंडेर पर
लगाती हो आवाज़
दाना लेकर आऊँ तो
उड़ जाती क्यों बिन बात
ओ ! चिरैया
तुम स्त्रियों की ही भाँति कितनी
डरी , सहमी हो
शायद ! तुम भी भूली नहीं हो
पिंजरा और अपना इतिहास
गौरैया और बिटिया
बहुत से बहुत कितना दूर तक देख पाती होगी गौरैया
प्रयोजन से बिखराये दानों और उसके पीछे
शिकारी की मंशा
क्या देख पाती होगी ?
कितनी दूर तक जा पाती होगी चहक
उस नन्हीं सी गौरैया की
बहुत से बहुत आस - पास के अपने साथी समूह तक
केवल वे ही समझ पाते होंगे
जाल में फँसने पर उसकी फड़फड़ाहट
और पुकार को ।
हमारी भी नन्हीं गौरैया
कहाँ देख पाती है
पहचाने ,अनजाने ,रिश्तेदारी शिकारी को
और कुछ लुभावने / डरावने जाल में फँस जाती है
इंद्रियों से परिपूर्ण हमारी देह भी
समझ नहीं पाती
शिकार होने पर सहसा बदली - सी उसकी
चहचहाहट , फड़फड़ाहट और मौन प्रश्न को !
सीख
उसका लिखा जिया जाए
या खुद लिखा जाए
अपने कर्म समझे जाए
या हाथ दिखाया जाए
घूमते ग्रह , तारों ,नक्षत्रों को मनाया जाए
या सीधा चला जाए
कैसे जिया जाए ?
क्योंकि जी तो वो चींटी भी रही है
कणों से कोना भर रही है
अंडे सिर माथे ले घूम रही है
बस्तियाँ नई गढ़ रही है
जबकि अगला पल उसे मालूम नही
जिसकी उसे परवाह नही
उससे दुगुने ,तिगुने ,कई गुनों की फ़ौज खड़ी है
संघर्षो की लंबी लड़ी है
देखो वो ढीट बड़ी है
बस बढ़ती चली है
उसने सिर उठा के कभी देखा नही
चाँद ,तारों से पूछा नही
अंधियारे ,उजियारे की फ़िक्र नही
थकान का भी जिक्र नही
कोई रविवार नहीं
बस जिंदा , जूनून और जगना .
-------------------------विशाखा मुलमुले
वीणा पाठक
चर्चा
देर तक होती रही चर्चा
कितनी बातों का होता रहा खर्चा
कोई हिसाब नहीं ।
सभा के बीच
समस्याओं की गेंद
खाती रही टप्पे।
कभी व्यक्त की गई चिंता
और कभी लड़ाईं गईं गप्पें ।
कोशिशें चलती रहीं
समस्या का अंत पाने की ।
कभी माँग हुई चाय की और
कभी पानी की ।
हम समस्याओं के सूत्र टटोलते रहे
कुछ उलझे हुए तार खोलते रहे ।
केवल कुर्सियाँ, मेज और दीवारें
शांति से सुन रहीं थीं
बाकी सब तो एक साथ बोलते रहे ।
आँखें
काले चश्मों के पीछे से ताकती आँखें
नाचती है किस दिशा में?
छिपाती हैं किन भावों को?
वे आँखें किनकी हैं?
नेताजी की? अभिनेताओं की?
रिश्वतखोरों की या जालसाजों की?
हर तरफ़ बिछी हैं आँखें ।
इनका शिकार बनते लोग
इन्हें भाँप नहीं पाते हैं
तभी तो ये काले चश्में
उनका भविष्य लील जाते हैं ।
इनसे तो भली हैं, काले चष्मों से ढँकी
बंद और बुझी आँखें
जो थामे हैं हाथ में लाठी
जो गुम हैं खुद में
छलावों से मुक्त
नियति के न्याय पर पछताती आँखें ।
धरती माँ
धरती की छाती पर तुम जब
कुछ दाने बिखरा दो तो वह
धन्य धन्य हो जाती है
उन नन्हे दानों के बदले
सोना वह उपजाती है
पर,
उसी छाती पर जब हम
पत्थर बिखराते हैं
चीर कलेजा कोमल उसका
सलाखों को सजाते हैं
तब वह सिसक सिसक कर हमसे
करती जाती मौन प्रार्थना
मत करना मुझको बेजान
उपजाना है मेरा काम
अपनी लालसा को दो विराम।
--------------------------वीणा पाठक
वैजयंती दाते
प्रेम
जिस-जिस राह से
मेरा गुजरना हुआ
हर बार तुम्हारा
सामने आना हुआ
मैं समझ गई
तुम्हें मुझसे प्रेम है
जब-जब कोई
बुरी नजर मुझपर पड़ी
तुमने उस नजर को
कड़ी सीख दी
मैं समझ गई,
तुम्हें मुझसे प्रेम है
जब जीवन-पथ पर
साथी की दरकार हुई,
तुम्हारी ही सूरत
दिल में साकार हुई
मैं समझ गई,
तुम्हें मुझसे प्रेम है
जिस-जिस चीज़ पर
निगाह मेरी ज्यादा टिकी
बिना कहे वह चीज़
मुझे तुमसे मिली
मैं समझ गई
तुम्हें मुझसे प्रेम है
संसार सागर में तैरते
जब हिचकोले खाये
तुमने पार लगने के
सबब सारे सिखाये
मै समझ गई
तुम्हें मुझसे प्रेम है
ढ़लती बेला में जब
सांझ के साये कातर हुए
आश्वस्ति के स्वर तुम्हारे
कितने मुखर हुए
मैं समझ गई,
तुम्हें मुझसे प्रेम है
कल तुम ईश्वर से
प्रार्थना कर रहे थे
साथ हमारा बना रहे
यही ना,कह रहे थे
मैं कहती हूँ
हाँ
फिर कहती हूँ
मुझे तुमसे प्रेम है
छवि
बरसों घूमते रहने के बाद
चन्द्रमा यदि हो भी जाये सफल
सूर्य को ढँक लेने में
उसकी अनन्त रश्मियों के
असीम तेज को
कहाँ छिपा पाता है ग्रहण?
बल्कि
निखर-निखर उठती है
उसकी आभा-
हीरक मुद्रिका की तरह
या यूँ कहें
उससे भी ज्यादा
इसीलिए
रहें तो सूर्य की तरह
कोई आक्षेप,निंदा,कटाक्ष
करने का प्रयास करे तो
व्यक्तित्व का आभामण्डल
चकाचौंध कर दे सबको
और सभी ग्रहणों को भूल
उस अनुपम छवि को
निहारते रहें.
------------------वैजयंती दाते
शोभा भिसे
सपने
मैंने सारे सपने
मिटटी में दबा दिए थे
अथाह गहराई में .
मान लिया
अब वो नहीं रहे
दफ्न हो गए
सदा के लिए
मिट्टी के गर्भ में .
लेकिन,
असंख्य शिराये
बनकर मजबूत जड़ें
फैलती रहीं
अन्जाने में.
अचानक
मिटटी की एक परत
दरकी ,
एक नन्ही कोपल
सर उठा झाँकने लगी
दबी पड़ी थी जो.
रश्मि किरणों ने सहलाया ,
मंद पवन ने दुलराया
शबनम की नन्ही बूंदों ने
नव जीवन का
विश्वास जगाया .
और नन्हा पौधा
बढ़ चला ,
जीवन को बाँहों में भरने को
ऊँचे अम्बर को छूने को .
हाइकु
१.
मनवा गाये
बारिश का मौसम
बावरा तन
२.
स्मार्ट शहर
काट दिये बिरवे
विदा परिंदे
३.
शीत लहर
ठिठुरते मासूम
दूभर जीना
४.
खिला पंकज
भंवरा मंडराये
बावरा मन.
५.
कोयल कूके
बदरिया बरसे
आया सावन
कह मुकरी
कह मुकरी काव्य की एक विधा है जिसपर अमीर खुसरो द्वारा सर्वाधिक काम किया गया है ।यह मूलतः दो सखियों के बीच का संवाद है जिसमें चार चरण होते हैं और प्रत्येक चरण में 15 या सोलह मात्राएं होती है ।इसके प्रथम तीन चरणों में एक सखी द्वारा दूसरी सखी से अपने साजन के कुछ लक्षण बताएं जाते है ।उन लक्षणो को सुनकर दूसरी सखी द्वारा उत्तर विषयक (क्यों सखी साजन?)प्रश्न किया जाता है और तब पहली सखी लजाकर अपने कहे से मुकर जाती है तथा साजन के बजाय ,कहे लक्षण से मिलता जुलता कुछ और उत्तर दे देती है। लय के अनुसार किसी पंक्ति में 15 या 17 मात्राभार भी हो सकता है ।यह भी जरूरी नहीं कि छंद की हर पंक्ति में समान मात्रा हर हो । प्रस्तुत है कुछ कह मुकरी।
१.
आया सावन मुदित हो जाय,
देखूँ उसे तो मन हर्षाए
ठुमका दै दै नाचे हुजूर
का सखि साजन?ना सखि मयूर.
२.
रात भर सोने नहीं देता
गुन'गुन करके गीत सुनाता
चिहुंटी काटे करे वह गदर
का सखि साजन?ना सखी मच्छर.
३.
जहाँ जाऊँ वहीं वह आये
मै नाचूं तो वह भी नाचे
पीछा करे मेरा हरजाई
का सखि साजन?ना परछाई.
४.
जब भी देखूँ,मन को भाये
मोहक रूप ह्रदय बस जाये
नेह लिये रिझाये बंदा
क्यों सखि साजन?,ना सखि चंदा.
५.
ऊँचा, लंबा, बदन गाठीला
चिकनी काया सुघड़ सजीला
जो देखे पड जाये ठंडा
का सखि साजन, ना सखी डंडा.
६.
उसके आगे करूं श्रृंगार
खुश होय मोरा रूप निहार
सदा मुझे उसका आकर्षण
क्या सखि साजन?ना सखि दर्पण.
--------------------------शोभा भिसे
सुधीर देशपांडे
कील
लुहार ने लिया लोहा
तपाया और
ठोककर बनाई कील
किसान ने
धूरी पर ठोक दी
थोडी गहरे और पहिये चल पडे़..
बीच रास्ते में राहगीर
रुक कर
टूटी चप्पल के बंद को
एक कील ठोककर
किया ठीक वरना
पैर बचाने वाली
चप्पल भी कहां चलने दे रही थी
ठीक से..
कुम्हार के चक्के
को आधार दे गढ़ती रही
आकार बर्तनों का
बढ़इयों मोचियों ही नहीं
सभी कामगारों ने कीलों से किया जोड़ने का काम..
चुभती भी रहीं कीलें
अंधविश्वास की/ संदेह की/ अविश्वास की/
जब तब
नासूर की तरह
टीसती रही जैसे कि टीसती है
चप्पलों या जूतियों
में गड़ी कीलें
उनके तलों से मुंह उठाकर हमारे तलवों में।
एक कील ने निकाला
दूसरी कील को
और हथियार बन गई
ऐसे ही
एक कील
कई सभ्यताओं के बीच
चली आई
चप्पलों से चक्कों तक को सम्हाले
हुए
सोचता हूँ
कीलें न होती
तो सभ्यताओं का स्थानांतरण
भी कहां संभव था !
उसने कहा
सुनो,
यह शोर सुन रहे हो
सुन रहा हूँ मैने कहा और
उठकर बाहर जाने लगा
उसने कहा
रहने दो तुम्हें इससे क्या?
मैं रुक गया
सुनो यह शोर
हमारे ही घर के सामने है
मैं अब नहीं रूका
मैं बाहर भागा
मेरे पीछे वह भी
अपने घर पर आई आफत
पहले जरूर
किसी और के घर थी
अपने घर को बचाने के लिए
दूसरे का घर बचाना
ज्यादा जरूरी है
मैंने कहा
वह चुप थी।
प्रश्न -- १
प्रश्न अनुत्तरित क्यों रहें
हर
उत्तरित प्रश्न की तरह
अस्त क्यों नहीं होते
हर
उत्तरित प्रश्न की तरह
अस्त क्यों नहीं होते
शाश्वत रहते हैं
अनुत्तरित प्रश्न
अपने उत्तर की तलाश में
हर प्रश्न साध्य हो
जरूरी नहीं
उत्तर हो हर प्रश्न का
ये तो बिल्कुल भी
जरूरी नही।
प्रश्न -- २
वे प्रश्न कर चुप हो जाते हैं
चुप्पी नही हर प्रश्न का उत्तर
वे प्रश्न कर पलट लेते हैं
अपना चेहरा
हर प्रश्न से मुंह नही फेरा जा सकता
हर प्रश्न पूछने
के बाद शुतुरमुर्गी चतुराहट
कब तक काम करेगी
प्रश्न जब तब टकराएंगे
मुँह बाएं खडे होंगे
शोर मचाएंगे
अपने उत्तर की तलाश में.
-------------------------सुधीर देशपांडे
स्वरांगी साने
पीहर
कविता में जाना
मेरे लिए पीहर जाने जैसा है।
मुक़ाम पर पहुँचते ही
लिवाने आ जाते हैं शब्द
दिमाग का सारा ज़रूरी, गैर ज़रूरी सामान
रख देते हैं कल्पना की गाड़ी में।
घूमती हूँ मन की सँकरी-चौड़ी सड़कों पर
दरवाज़े पर ही खड़ी होती है
हँसती-मुस्कुराती कविता
वह माँ होती है मेरे लिए।
जब लौटती हूँ
तो सारे गैर ज़रूरी सामान का
संपादन कर छोड़ने आते हैं पिता की तरह विराम चिन्ह।
कविता के घर से
इस तरह लौट आती हूँ
जैसे लौटती हैं लड़कियाँ मायके से
बहुत कुछ लेकर।
प्याज़
बहुत सारा
प्याज़ काटने बैठ जाती थी माँ।
कहती थी मसाला भूनना है।
दीदी को भी बड़ा प्यारा लगता
प्याज़ काटना।
तब समझ नहीं पाती थी
इतना अच्छा क्या है
प्याज़ काटने में।
आज पूछती है बेटी
क्या हुआ?
और वह कह देती है
कुछ नहीं
प्याज़ काट रही हूँ।
जूते
चलो घर की तरफ़ चलें तेज़ कदमों से
मैं नहीं उतरना चाहता
नहीं छिटकना चाहता
बीच बाज़ार तुमसे
घर की ड्योढ़ी से कर आया था मैं
तुम्हारे साथ लौटने का वादा
पर इन दिनों
घर पहुँचने की हड़बड़ी हो जाती है
जाने कब कहाँ गड़बड़ हो जाए
उधर तुम्हारा बेटा
राह देखे
कि आज तो बैठ ही जाएँगे उसके कदम
मुझमें फिटमफाट
और हम न लौट पाए तो?
हो सकता है
शिना़ख्त भी न हो पाए
सैकड़ों-हज़ारों में
फिर कौन भरोसा करेगा हम पर
कि कदमों को ले जाने वाले
शाम ढले ले भी आते हैं सही सलामत।
तथागत
जितना तुम कहते गए शांत रहो
उतना कोलाहल बढ़ता गया मन में
जितनी बार तुमसे सीखा
क्रोध पर काबू पाना
उतनी बार गुस्सा उफ़नता रहा
क्षमा की सीख तुम देते रहे
हम बदला लेते रहे
ऐसा क्यों हुआ तथागत?
‘शरणं गच्छामि’
कहने के बाद भी
तुम्हारी शरण में क्यों न आ सके हम तथागत?
कुछ कहो न तथागत?
---------------------------------स्वरांगी साने
स्वाति श्रोत्री
कुछ क्षणिकाएँ
१.
जीवन की राहों में तुम मिले अपना बनकर,
आँखो में सजे हो एक सपना बनकर,
सीप में जैसे मोती रहे,
नैनों में रहो काजल बनकर।
२.
कुछ यूँ अदा से तुम मुस्काये,
दर्द दिल के और गहराए,
बेवफा तुम्हारी इन्ही अदाओं पे,
न जाने कितने घायल कहलाये।
३.
हवा का झोंका आया खुशबू तेरी लाया,
घटायें छाईं मानो तेरा आँचल लहराया,
सावन जो बरसे दिल कसमसाया,
मेरा चाँद अब तक बाहर क्यों नही आया।
यादें
यादों के कोने से
एक गेंद लुढ़कती आयी,
न जाने कितनी यादें
संग अपने लायी।
बचपन के सुनहरे दिन,
वो मौज करना,
ननिहाल जाना,
नानी से बतियाना।
वो मीठे आम,जामुन खाना!
वक्त ने ली कैसी अंगड़ाई,
ना वो जामुन हैं, ना ही अमराई।
अब यहां आता है ना कोई
सूना हैं घर सूनी अँगनाई।
बाल गोपाल भूले अपने रिश्ते,
वक्त के साथ खो गए नाते।
पूरा घर बिखरा है पुरानी यादों से
कोई कहां कोई कहां
घर खाली अपनों से!
जीवन एक खेल
जीवन एक खेल
सुख दुःख की रेल
नही इसमें मेल
आज हैं 'हम'
कल बनेंगे 'तुम'
याद करोगे 'तुम'
जब बनोगे 'तुम'
जीवन एक खेल
सांसो के चलते
दिल के धड़कते
अपनों से मिलते
साँसों के रुकते
अपनों से बिछड़ते
नही इसमें मेल
जीवन एक खेल
-------------------- स्वाति श्रोत्री
संध्या कुलकर्णी
लिखो
सागर किनारे खड़े रहकर
लिखो लहरों पर कवितायें तुम
उनके उतार चढ़ाव का द्वंद्व
और कारणों पर भी लिखो
समुद्र का अतल क्यों रहता है
तुम्हारे आकर्षण का केंद्र
मोती जो निकाल लिए गए
उनकी मोहक चमक पर लिखो
डुबकी लगाना तुम्हारा काम नहीं
इतने ढेर जो पड़े हैं किनारे
उनको बनाओ विषय
सितारों की चमक पर लिखो
सूरज की दमक पर लिखो
सप्तऋषि की धाराओं पर
मत खोजो निशान आगामी सदी के
आनंद की व्युत्पत्ति हो तुम
कारणों से दूर रहो
आँखों पर केंद्रित रहो
पदचिन्हों पर
हर बार यही लिखा हुआ
दिखता रहा
पैरों पर जमी
मिट्टी को नहीं मिले जवाब
आँखों पर जमा कोहरा यथावत रहा
फिर भी ....
प्रत्युत्तर में मुस्कुराया
उछाल भरता हुआ समुद्र
क्षितिज पर छितरा अनंत साम्राज्य
मिट्टी जो समय की शिराओं में
लिपट गयी थी गर्द बन
मौसम बिलकुल साफ़ था
(इसे सिर्फ मौसम की बात ना समझें )
बारीक लकीर
सबसे पहले
होता है आक्रमण
उत्पाद पर,लक्ष्य पर उत्पादक के
फिर तैयार किये जाते हैं
बहुत से मारक उत्पाद
उनके अपने ही बनाये बाजार के लिए
ठीक इसी बिंदु पर
एक कर देने की अदृश्य
और बारीक लकीर खड़ी होती है
व्यक्ति और उत्पाद की ....!!
अर्थ
अर्थ जितने थे
उसके तन से गुज़र गए
गहरे अतल से निकले शब्द
उसके अस्तित्व के
जिस हिस्से के लिए थे
वहाँ काई जमी थी
नियति का कारीगर
समय की बेड़ियों में
बाँध दिए गए कितने रतजगे
कितनी मुस्कानें ,कितने रंग
कितनी गंध,कितने सुर
देह सुख की बर्फ जमती रही
नसों के भीतर अनदेखी भावों की कर
गुम होती रहीं फरियादें मन की ....
जड़ हो गईं जीवंत करवटें कितनी
एक दिन
तुम्हे बना ही देगा रोबोट ...
नियति का कारीगर ...!!
वो जीती हुई औरत
सफ़ेद
शफ्फाक सी चादर है
नहीं है एक भी शल उस पर
पूरे घर में सब कुछ
हो चुका है व्यवस्थित
जिसमे ढली हुई है वो
टेबल पर चमकती मेज़पोश
जिस पर नहीं गिरती कभी कॉफी
विभिन्न पकवानो के साथ
पकाया जा चुका है भोजन
दिलकश प्लेटों और
चमकदार ग्लास बहुत से
सजाये जा चुके हैं
खुद को भी चमका लिया है
ठीक फर्निचर जैसा
किताबों की अलमारी भी
इसी बहाने लकदक कर ली गयी है
चोर नज़रों से पढ़े गए कुछ वर्क़
झाड़ कर रख दिए हैं
अर्थ सहित.....
एक खूबसूरत खांचे में
जड़ी औरत की तस्वीर दीवार पर
जिसे सिद्ध करने की
लगाई है होड़ उसने
गुपचुप समा जाती है
उसके भीतर
चीज़ें,आदान प्रदान के
विनिहित प्रयोजनों से लेस
शर्तें, ढली हुईं स्त्री होने के
सुरक्षित कोकून में लिपटी
समझोते सुविधा सुखों के भरे हुए
इच्छित /अनिच्छित
बक्सों में कैद ...
कविता
और गुमी हुई कहानियों
वाली औरत में तब्दील
हो जाती है ..
जीत ही जाती है,
आखिरकार ,खूबसूरत खांचे
में जड़ी औरत दीवार पर
हर बार.
---------------------------संध्या कुलकर्णी
संध्या भराडे
१.
वो खत गुनाहोंवाले रोज पढा करते हैं
शब्दों का इतिहास याद है
पर अर्थो की बेल नवेली
जैसे सूरज से रुठ जाये
सावन की हर सांझ सहेली
गीली रेत के घरौंदेपर
यादो के सीप जडा करते हैं
सारा गीता का सार उसीमें
पावन रामायण की चौपाई
गर्भवती सीता ने जब
सन्देहों की सजा पाई
वस्रहरण के लिये आज भी
द्रोपदियों को खडा करते हैं
२.
जब जब तुमने मन दर्पण छुआ
खंड खंड प्रतिबिम्ब हुआ है
मैने जो आस्थाऐं पूजी
उनको तुमने भंग कर दिया
बहुत कुछ बिखरा बिखरा था
अच्छा हुआ आत्ममग्न कर दिया
पारदर्शी मन का चूर चूर अब दंभ हुआ है.
करुणा के सागर को
औरो का विश्वास ले डूबा
सच्चाई को किसका डर है
यह विश्वास हमे ले डूबा
तत् त्वमसिकी बातो का
आजसे ही आरम्भ हुआ है.
३.
पत्थर की नगरी नगरी में क्यों
शीशे-सा मन लेकर आई
नजरों से ही घायल होना था
तो क्यों मृदुगंधी तन लेकर आई
आवारा नागफनी की खातिर
महकता मधुबन लेकर आई
भुलावे के बाजार में क्यों
यह प्यार का धन लेकर आई
हीरे तराशने वाले के घर पगली
मोम-सा मन लेकर आई.
--------------------संध्या भराडे
सुंदर संकलन
ReplyDeleteधन्यवाद
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ReplyDeleteसुंदर संकलन
ReplyDeleteअभिनंदन
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अभिप्रायासाठी खूप आभार
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