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धनश्री तोड़ेवाले देसाई, निशा देशपांडे, निशिकांत  कोचकर 


धनश्री तोड़ेवाले देसाई


एक निवाले की  ख़ातिर 

ट्रिंग ट्रिंग बजा फ़ोन मैंने कहा हैलो आप कौन?
सामने से आवाज़ आयी आप सुनेंगे या रहेंगे मौन?
मैंने फिर पूछा आप बोले तो सही आखिर आप को चाहिए कौन?
आवाज़ लगी कुछ जानी पहचानी सुना हुआ सा था कुछ टोन।

बोले विश्वास करोगे मेरा, या धर दोगे फिर ज्यो के त्यों फ़ोन,
मैं थोड़ा गुस्साई हुई बोली अरे राम .....आपको क्या है काम?
आवाज़ आई अरे वाह!! सच में आपने पहचान लिया मेरा नाम
मैंने कहा आवाज़ तो कुछ जानी पहचानी लगती है,
वो तुरंत बोले मेरी आवाज़ तो जन जन में बसती है

फिर पूछा आखिर क्यों घुमाफिरा के बोल रहे है आप?
बोले अरे ...ईश्वर हूँ मैं, ऐसे कैसे कह दूँ चुपचाप।
मैं कुछ बोलू उसके पहले बोल पड़े भगवान,
क्या घर में है कुछ खाने का सामान?

मंदिर में चढ़ रहे चढ़ावे से पेट नहीं भर पायेगा,
क्योंकि उसमे तो सोना चाँदी भरा है गले से उतर नहीं पायेगा|
मुझे चाहिए बस दो रोटी और थोड़ी सी साग,
वरना  देदो पका हो अगर सिर्फ दाल भात
मेरे मंदिरो में चढ़ा रहे है सोना चाँदी और जेवरात,
पैरी पर पड़ा सोचता हूँ मैं,उससे कैसे बनेगा दाल भात?

भूख से मेरी जल रही है तप रही है काया,
"एक निवाले के ख़ातिर "है तुमको टेलीफोन लगाया|
मंदिर आओ तो लेते आना थोड़ी सब्जी और भात,
अंदर मत जाना मैं बाहर ही बैठा हूँ ,कतार में बैठे राह ताक।

 बूढ़ा बचपन

झुर्रियों की आड़ से बूढ़ा बचपन मुस्कुराता है,
कि  अभी जीने के बहाने है ,बारबार दोहराता है।
टूटे दाँत अभी भी मचलते है गन्ना,भुट्टा खाने को,
जुबान लपलपाती है बोर ,कबीट के दाने को।
मुठ्ठी भर मूंगफली और गुड़ से मुँह में स्वाद आता है,
कौन कमबख्त कहता है, की इससे डायबिटीज़ होता है?

सेहत का ख्याल, इन घरवालो की नज़रो में होता है,
पर हमें भी छुप -छुप कर खाना बड़ा भाता है।
हमें भी तो ज़िद किये अरसा हो चूका है,
देखो ये पीपल भी हमारी तरह बूढ़ा हो चुका है।
फिर भी इसकी उम्र कहाँ  दिखती है?
इसकी तरह हमारी जड़े भी अभी पक्की है।

नए पौधों को छाया देता है ये सीना ताने,
हमने भी तो गाए नाती पोतों को लोरी ,गाने।
फिर क्यों इसकी ही छाया सुहाती है?
बुजुर्ग बने बच्चों की दया क्यों नहीं आती है?
जब तक हात पाँव चलते है तब तक ही आदमी निभाते है,
वरना बिन फ़ल और छाया देने वाले पेड़ भी कहाँ सुहाते है।

----------------------------------------धनश्री तोड़ेवाले देसाई

निशा देशपांडे 


बिरले 


देखा है हमने दुनिया में, 
कुछ नैन वो बिरले होते हैं। 
औरों के आँसू को लेकर, 
जो चेहरे अपने धोते हैं। 

दुख की गर्मी से झुलस रहे, 
देखे कितने ही घायल मन। 
शीतल कर दें जो पल भर में, 
वो झोंके बिरले होते हैं। 

चप्पे-चप्पे और गली-गली, 
देखे कितने चातक प्यासे। 
लेकर जो स्वाति बूँद आते, 
वो बादल बिरले होते हैं। 

देखे कितने ही मन प्रांगण, 
घेरे जिनको बस तम ही तुम। 
जो उनको जगमग कर दें, 
कुछ दीप वो बिरले होते हैं। 

दुख की सरिता में डूब रहे, 
देखे कितने ही विकल विव्हल। 
खुद डूब के जो साहिल बन जाते, 
कुछ लोग वो बिरले होते हैं।   

------------------------------ निशा देशपांडे 



निशिकांत  कोचकर


१. 
तुमने कभी बस में सफर किया है
अकेले
उन उन्मादी तरंगों में विचरण किया है
कागज की कश्ती को हवा में उड़ते देखा है
डोर से टूटी पतंग को देखा है
ब्रम्हांड का चक्कर लगाते हुए
पृथ्वी से मंगल ग्रह तक
मंगल से बुध और
बुध से बृहस्पति ग्रह पर उछलते हुए
बृहस्पति से शनि ग्रह के वलय में
चक्कर लगाने का अलग ही आनंद है
इन सब ग्रहों का अपना जीवन है.

२. 
नदी हमारे कानों में गुन गुनाती है
अपनी व्यथा कथा सुनाती है
हम अनसुना कर देते हैं
उसके जीवन संघर्ष को
पत्थरों पर खाई चोटों को
दुर्गन्ध जनित तत्वों से
मैली हुई उसकी काया को
भूल जाते हैं उसके
अबाधित प्रवाह को

नदी हमें प्रेरणा देती है
जीने की कला सिखाती है
घाटियों, कंदराओं से
बच निकलने का मार्ग दिखाती है
बाधाओं, अवरोधों को पार कर
जीवन को गतिमान बनाती है

कलकल निनाद करता
सप्तसुरों का संगीत
छेड़ता है मन के तारों को
चांद, सूरज को भी
अपने प्रवाह में शामिल कर
खेतों खलिहानों में
मनुष्य और प्राणियों में
जीवन संचार कर
अपने लक्ष्य की ओर
सतत अग्रसर होती रहती है

और हम हैं कि 
अनसुना कर रहे हैं
उसकी लय ताल को
सबको समाहित करने की
निर्मोही क्षमता को
जीवन के अंतिम पड़ाव तक
आते आते वह
वैराग्य धारण करती है
सब बंधनों से मुक्त होकर।

३. 
सपने,
मेरे अपने सपने
अंधेरे के
उजाले के
आसमान से भी ऊंचे
समंदर से भी गहरे
हवाओं में तैरते हुए
पानी पर चलते हुए
अपरिचित राहों से गुजरे हुए
परिचित चेहरों में छुपे हुए
मेरे अपने सपने
सपने में आकर बोले
हमे क्यों बंद कर रखा है
एक कमरे में
कईयों को दफना दिया
अकाल ही मरने दिया
मैंने कहा
उस कमरे में दस दरवाजे हैं
उनमें खुले ताले पड़े हैं
अपनी अपनी दिशा ढूंढो
और निकल पड़ो
आपस में मत टकराना
गलत दिशा में जाओगे
तो पछताओगे
वापसी का दरवाजा बंद है।

कुछ सपने बाहर निकले
रास्ता भटक गए
अनंत में विलीन हो गए
कुछ रास्ते की बाधाओं को
सह न पाए
टूट गए
कुछ उन्मुक्त खेलते रहे
कुछ मन बहलाते रहे
कुछ अभी भी हैं कमरे में
उचित समय के
इंतजार में।

--------------- निशिकांत  कोचकर
 



 
                          

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