ललित निबन्ध

डॉ.  निशिकान्त कोचकर, अरूण गोखले, दिव्या विळेकर 

 

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डॉ. निशिकान्त कोचकर  

साहित्य और सम्प्रेषण 


साहित्य समय की फोटोग्राफी नहीं पेंटिंग है जिसमें रचनाकार की परिकल्पना, प्रतिभा, दृष्टी,शिल्प और प्रयोजन आदि सम्मिलित होते हैं. इस दृष्टी से लेखक वस्तुजगत का परिमार्जन करता है और पाठक को नया दृष्टिकोण देता है. साहित्य में समय की शक्ल देखना अपने आत्म-चेतस होने को देखना है. किसी वस्तु को देखना और साहित्य की दृष्टी से देखना दो भिन्न बातें हैं. साहित्य में हम दृश्य जगत की अंतरंग, अदृश्य शिराओं को भी देख सकते हैं. जीवन में हम अपने होने की अर्थवत्ता का अन्वेषण कर सकते हैं. साधारण व्यक्ति किसी चित्र में रूप और आकार ही देखता है किन्तु साहित्यिक उसमें उकेरी छवियाँ, चरित्र, स्वभाव, उपलब्धि,पर्यावरण, वातावरण,रंगों और रेखाओं की संकेतित वृहत्तर रूप और समय को परिभाषित करता है. वह न केवल कलाकार की आत्माभिव्यक्ति बल्कि पाठक या दर्शक को स्वयं को देखने और विवेचित करने की स्वतंत्रता और नई सोच भी देता  है. 
जब हम साहित्य को फोटोग्राफी के स्थान पर पेंटिंग कहते हैं तो उसमें बहुआयामितता, जटिलता और संश्लिष्टता स्वयमेव ही आ जाती है. कोई भी साहित्यिक कृति तभी रचना बनती है जब उसमें किसी लेखक का पूरा बौद्धिक, मानसिक,भावनिक और संवेदना संसार सक्रीय रूप से शामिल होता है. साहित्य में लेखक के मन की अभिव्यक्ति है तो सम्प्रेषण भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जो पाठक के अंतर्तम को आंदोलित कर सके. 

तुलसीदास जी कहते हैं,
“सरल कवित कीरति विमल सो आदरहिं सुजान “ 
अर्थात सुविज्ञ लोग ऐसी कविता का आदर करते हैं जिसके भीतर किसी निर्मल व्यक्तित्व का निरूपण हो. फिर आम पाठक साहित्य को इतना जटिल क्यों समझते हैं. तुलसीदास जैसा सरल और बड़ा साहित्यिक कौन है. 

साहित्य में सरल और सपाट दो प्रकार होते हैं. सपाट काव्य हमारे शास्त्र में ‘अवर’ काव्य कहा गया है, वर्तमान शब्दावली में घटिया. सपाट एक आयामी होता है, जैसे छायांकन. वह भाषा की तकनीकी सतह तक सीमित रहता है. जबकि सरल साहित्य बहुस्तरीय और बहुआयामी होता है. काव्यार्थ का एक सिरा अभिधा के पास है, जिस रूप में वह सबके मन तक पहुंचता है. लेकिन वहीँ उसके लक्षित और व्यंजित अर्थ, मर्मज्ञ और सुजान को सम्प्रेषित होते हैं. सरल काव्य के आयाम जटिल काव्य के आयाम से व्यापक होते हैं. सरल में से गहन अर्थ निकालना साहित्यिक दृष्टी देता है. हिंदी के ही एक लेखक ने रामचरितमानस के ‘सुन्दर काण्ड’.के प्रारंभिक छः दोहा - चौपाइयों की व्याख्या और भाष्य में तीन पुस्तकें लिख डाली और उसमें आधुनिकतम अर्थ और सन्दर्भों का समावेश कर दिया. 
रचना की गूढता और उसे बहुआयामी बनाने के लिए रचनाकार समाधिस्थ हो जाता है जिसे एकाग्रता भी कह सकते हैं. उस समय रचनाकार की सारी शक्तियाँ घनीभूत हो जाती हैं. और जो रचनाकार जितनी एकाग्रता से सृजन करता है उसके चेतन-अवचेतन में अनेक विस्मयों का सृजन हो जाता है. कई बार लेखक या कलाकार खुद ही आश्चर्यचकित हो जाता है कि आखिर उससे यह सब कैसे हो गया? अवचेतन में हुए इस सृजन को आत्मविस्मृति का क्षण नहीं मानना चाहिये। उसमे सब कुछ जागृत रहता है, रचनाकार की सृजनात्मक शक्तियां अधिक सक्रीय हो जाती हैं. रचनाकार स्वयं का आत्मान्वेषण भी करता रहता है. 
किसी काव्य रचना या साहित्यिक कृति को जरुरी नहीं कि पाठक के मन में वही भाव या अर्थ जागृत हुए हों जो रचनाकार के मन में सृजन करते समय उत्पन्न हुए हों. यह आस्वादन दोतरफा भी हो सकता है. अर्थात यह दोहरी अन्वेषण- प्रक्रिया की परिणति हो सकता है. और यहीं पर आलोचना का भी जन्म होता है. पाठक किसी कृति के रूप, ध्वनि, ज्ञान और भाषा का आवरण हटाकर रचना की मौलिक प्रवृत्ति का छिद्रान्वेषण और विमर्श कर नये सन्दर्भ और अर्थ खोजने लगता है. पाठक उसी रस का आस्वादन ले जिस रस को रचनाकार ने सम्प्रेषित किया है यह आवश्यक नहीं है. 
इस दृष्टी से विचार करें तो साहित्य में कुछ भी सरल नहीं है. क्योंकि पाठक जब भी साहित्य के भीतर प्रवेश करता है तो उसमें निहित अर्थ और सौंदर्य के नये आयाम भी दिखने लगते हैं. इसके विपरीत जटिल साहित्य अपने उपादानों में भी जटिल होता है. भाषा के साथ-साथ उसके अर्थ,सन्दर्भ भी बदलते जाते हैं. साहित्य या कलाओं का पाठ एक अन्वेषण क्रिया है. सृजन प्रक्रिया जिस तरह रचनाकार के लिए यातना है,वैसी ही आस्वादन प्रक्रिया भी पाठक के लिए यातना है. परन्तु जैसे प्रसव पीड़ा के बाद का सुख माँ अनुभव करती है वैसे ही लेखक भी अपनी सृजन कृति को देख गौरवान्वित अनुभव करता है. उसी तरह पाठक भी किसी कृति को उसकी सम्पूर्णता से विश्लेषित कर उसका रसास्वादन करता है तो सुखद आनंदानुभूति प्राप्त होती है. आधुनिक कविता के आस्वादन के लिए पाठक को भी उसी अनुरूप अभ्यस्त होने की आवश्यकता है. नई  कविता में नित-प्रतिदिन नये -नये  प्रयोग हो रहे हैं तो पाठक उनसे तादात्म्य स्थापित नही कर पा रहा है. इसलिए आवश्यक है कि रचनाकार की गतिशीलता और परिवर्तन की प्रक्रिया से पाठक भी रूबरू और गतिशील होना चाहिये।  किन्तु वैसा होता नहीं दिखता। इसीलिये हिंदी का पाठक रचनाकार और हिंदी साहित्य से दूर होता जा रहा है.
साहित्य के समक्ष व्यक्ति नहीं होता कल्पना होती है, जो अदृश्य है. शब्द होता है जो दृश्य है, लेकिन उसका अर्थ अदृश्य है. रचना होती है जो पढ़ी या सुनी जा सकती है, लेकिन उसका भाव अदृश्य है. यह अदृश्य भाव ही सम्प्रेषणीय है जो हमें हँसाता है, रुलाता है, उदास करता है, आनंदित करता है. साहित्य की यही सम्प्रेषणीयता पाठक के ह्रदय को विभिन्न रस ग्रहण से सराबोर करती है. 
साहित्य को कलावादी,आदर्शवादी, यथार्थवादी या प्रगतिशील कुछ भी कह दें, वह कला में जीवन जीता है और जीवन में कला देखता है. जिस तरह श्रम रहित कला व्यर्थ है, उसी तरह साहित्य को भी परखना चाहिए. यानी हिंदी के साहित्यकार जो जल्दी में कवी,कथाकार की महत्वाकांक्षा पाले कुछ भी रचकर अपने आप को साहित्यिक की श्रेणी में उच्च समझने लगते हैं. बिना श्रम किये, पठन-पाठन किये जो साहित्य रचा जाता है, वह सतही, उथला और सपाट होता है. यही वजह है कि हमारा साहित्य आज भी विश्व साहित्य के समक्ष लड़खड़ाता है. क्योंकि उसकी सम्प्रेषणीयता संदिग्ध रहती है.   
हिंदी शब्दकोष पर एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि वह भाषा के पर्वत पर आकर ठहर सी गई है. उसे आधुनिक युग की शब्दावली से गतिशील करना चाहिये। ऐसे विद्वानों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि हिंदी अन्य भाषाओँ के, लोक भाषाओँ के हजारों शब्द शामिल किये गये हैं. एक एक शब्द के अनेक पर्यायवाची शब्द मौजूद हैं, क्या हम इन पर्यायी शब्दों का उपयोग करते हैं. सामान्य बोलचाल की भाषा में चार-पांच सौ से ज्यादा शब्द नहीं आते हैं. हिंदी में उसका इस समय शब्दकोष छः लाख से अधिक शब्दों का है. रामचरितमानस में ही दस हजार से अधिक शब्दों का उपयोग हुआ है. क्या हम उन शब्दों का रोजमर्रा के जीवन में उपयोग करते हैं? और हिंदी भाषा तो  वैसे भी सम्प्रेषण की   इतनी समृद्ध भाषा है , फिर उसमें अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल क्यों? राजकीय भाषा कोष में कुछ कठिन और जटिल शब्दों के उपयोग से बचा जाकर अधिक सरल और आसान शब्दों का समावेश किया जा सकता है, ताकि सामान्यजन भी बोलने में असहज अनुभव न करे. 
साहित्य पाठक के ह्रदय में जितनी गहरी पैठ बनाएगा और सम्प्रेषणीय होगा उतना ही अजरामर हो जाएगा.

गैस्टाल्ट 

प्रायः हम प्रत्येक वस्तु को अपनी एक ही दृष्टी से देखते हैं,परखते हैं. बिना इस बात का विचार किये हुए कि प्रत्येक वस्तु के विभिन्न कोण हो सकते हैं, विभिन्न रूप हो सकते हैं. सामान्यजन की विचार-दृष्टी, विचार क्षमता एक ही दिशा में कार्य करती है. उसके लिए विभिन्न पहलुओं पर विचार करना संभव नहीं होता या समयाभाव के कारण या अन्यत्र अनावश्यक स्थानों पर समय का दुरूपयोग करने के कारण हम वस्तु या विचार के विभिन्न आयामों को परिलक्षित करने से वंचित रह जाते हैं और अपनी विचारशून्यता को प्रकट कर देते हैं. यदि वस्तु या विचार को एक तरफ से देखें तो उसका रूप अलग,अर्थ अलग और उसी वस्तु या विचार को दूसरी तरफ से देखने से या दूसरे दृष्टिकोण से विचार करने पर वही वस्तु अलग तरह से दिखाई देती है. जर्मन भाषा में इसे ही गैस्टाल्ट कहते है. एक ही वस्तु के अलग-अलग आकार और अलग-अलग व्यवहार हो सकते हैं. इससे आपकी दृष्टी की व्यापकता अवश्य बढ़ जाती है. देखने के ढंग से,सोचने के ढंग से सारा अर्थ ही बदल जाता है. 
संसार भी तो यही है. अज्ञानी भी आँखों का उपयोग करता है. अनंत वस्तुएं देखता है. लेकिन एक ही ढंग से,एक ही नजरिये से. फिर उसी को ज्ञानी देखता है और अनंत संभावनाएं तलाशता है. उसमें खो जाता है और विराट स्वरुप के दर्शन करता है. 
डार्विन के सिद्धांत के अनुसार विकासवाद के वंशानुक्रम में सबसे पहले पृथ्वी पर पेड़-पौधों के पश्चात एक कोषीय जीव की उत्पत्ति हुई. उसके पश्चात जलचर, उभयचर,पक्षी,हिंस्त्र जंगली जानवर,चौपाये, कपिल, ओराँगउटाँग से होते हुए आज के मानव का विकास हुआ. ये सभी एक निश्चित विकासक्रम में विकसित हुए. डार्विन ने इस सिद्धांत को चार-पांच सौ साल पहले प्रतिपादित किया और अपनी नई वैज्ञानिक शोध से सबको अभिभूत किया. किन्तु यही बात हमारे पौराणिक ग्रंथों में सदियों पहले से वर्णित है,उसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं गया. 
दशावतार की कल्पना हमारे यहाँ सदियों से वर्णित है और प्रायः सभी इन्हे जानते हैं. लेकिन क्या कभी किसी ने गौर किया कि इनका विकासवाद  के सिद्धांत के अनुरूप ही प्रकटीकरण हुआ है. सबसे पहले मत्स्यावतार यानी जलचर प्राणी. उसके पश्चात कूर्मावतार यानि उभयचर प्राणी. उसके पश्चात वराहावतार यानी  अविकसित पशु. फिर आया नृसिंहावतार ,आधा पशु,आधा मानव ,वह भी हिंसक रूप में. उसके बाद हुआ वामन अवतार यानि मानव रूप तो आया,किन्तु अर्धविकसित। उसके बाद परशुराम के रूप में जिसमें मानसिक रुप से विकास की अनेक संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं. राम के अवतार में मानव का पूर्ण विकास हुआ,किन्तु फिर भी कुछ कमी रह गई थी इसलिए कृष्ण के रूप में सोलह कलाओं में पारंगत योगेश्वर सम्पूर्ण मानव का विकास हुआ. साम,दाम,दंड,भेद और आज के याग में आवश्यक सभी तत्वों का समावेश मानव के इस रूप में सम्पूर्ण हुआ. सभी योग,भोग के पश्चात वैराग्य की भावना आती है. अतः इसके पश्चात बुद्ध का अवतार हुआ. इसके बाद भी अगली कल्पना के रूप में कल्कि अवतार की कामना की गई है जब सृष्टि का पुनर्निर्माण होगा,नये सिरे से. 
क्या हमने कभी इन बातों पर गौर किया कि हमारे पुराणों में कई बातें वर्णित हैं,जिनके पीछे भी कुछ न कुछ वैज्ञानिक सोच है और आज जब पश्चिम के वैज्ञानिक उन्ही बातों को अन्वेषित कर हमारे सामने सिद्धांत के रूप में रखते हैं तो हम उनसे प्रभावित होते हैं और उन्हें सहज स्वीकार कर लेते हैं. अन्यथा पहले हम उन्ही बातों को दकियानूसी,पुरातनपंथी,रूढ़िवादी आदि कहकर नकार चुके होते हैं. किन्तु उन्ही बातों को नई दृष्टी से देखने पर नये प्रकार से विचार करने पर तथ्यात्मक सत्य दिखाई देने लगता है. यही गैस्टाल्ट कहलाता है. 
जीवन के बारे में भी लोगों के अलग-अलग विचार हो सकते है.. यह उनके लिए सर्वश्रेष्ठ हो सकता है जिनके विचार सकारात्मक हैं,जो इसका भरपूर आनंद उठा रहा हैं,भले ही किसी भी उम्र से गुजर रहे हों. जीवन उन लोगों के लिए मुश्किल भरा हो सकता है जो इसे विश्लेषित करने का प्रयत्न कर रहे हों. और कुछ लोगों के लिए बहुत ख़राब भी हो सकता है,जो इसकी आलोचना में अपना समय व्यर्थ गवाँ  रहे हों. यह हर एक के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि वह कैसी सोच रखता है. 
क्या कभी आपने विचार किया कि आज जो ये बड़े-बड़े वृक्ष खड़े हैं, वे कभी हमारे पुराने ज़माने के ऋषिमुनि रहे होंगे, जो शीर्षासन की मुद्रा में खड़े हैं. हम भोजन ग्रहण करते हैं मुँह से, पानी पीते हैं मुँह से. तो ये वृक्ष अपना भोजन, पानी जड़ों से ग्रहण करते हैं और जड़ें समायी रहती हैं जमीन में. इसका अर्थ हुआ इनका मुँह तो जमीन में है और पाँव ऊपर अर्थात शीर्षासन की मुद्रा में. किसी वैज्ञानिक ने इसी आधार पर मनुष्य के विकास को समझाने की कोशिश की है. सर्वप्रथम जीव जब इस पृथ्वी पर आया तो वह समतल था,जैसे जलचर. मछली आदि पानी में समतल ही तैरते हैं. जमीन  पर केंचुएं आदि उसके बाद विकसित हुए जो जमीन  पर समतल,रेंगकर चलते हैं. उसके बाद चौपाये जानवर और बंदरो का विकास हुआ,किन्तु वे पूरी तरह से सीधे खड़े नहीं हो सकते थे. वृक्ष शीर्षासन किये हुए आदमी जैसे हैं, आदमी वृक्ष से ठीक उल्टा सीधा खड़ा हो गया, प्रकृति में भी, स्वाभाव में भी. वृक्ष देना ही देना जानते हैं, और आदमी लेना ही लेना. 
केवल हमारा नजरिया बदलने से,सोचने-विचारने का ढंग बदलने से हमारे जीवन में आनेवाली कितनी ही समस्याओं का समाधान हम आसानी से पा सकते हैं. पारिवारिक जीवन में, सामाजिक जीवन में और देश-प्रदेश की समस्याएं भी विचारों के परिवर्तन से अपना रूप बदल सकती हैं, नई दिशा की ओर उन्मुख हो सकती हैं. सास-बहू के झगडे ही न हो यदि बहू को भी बेटी के दृष्टिकोण से देखें तो. पिता-पुत्रों में जनरेशन गेप वाली समस्याएं ही न हों, यदि समयानुसार वैचारिक दृष्टिकोण में व्यापकता विराजमान हो. यानी  किसी भी वस्तु को,विचार को, समस्या को, आचार-व्यवहार को अलग-अलग दृष्टिकोण से जांचें-परखें तो हमें उसमें कई तरह की संभावनाएं नजर आएँगी और खुद ब खुद नए रास्ते दिखाई देंगे. 
किसी कॉलेज में प्राध्यापक पढ़ा रहे थे कि भगवान् ने ही अच्छाई बनाई है तो भगवान् ने बुराई भी बनाई होगी. इसका मतलब भगवान् ने ही संसार में जो कुछ बनाया है सब उसी का बनाया हुआ है. इस पर एक विद्यार्थी ने असहमति में अपना मत व्यक्त किया. उसने पूछा कि क्या वाकई में ठण्ड है, तो सभी ने कहा कि, हाँ ठण्ड है,हम उसे महसूस करते हैं. उसने कहा,नहीं ठण्ड कुछ नहीं,यह सिर्फ गर्मी का अभाव है, जो हमें महसूस होता है. फिर उसने पूछा कि, क्या अँधेरा है.सभी ने कहा,हाँ अँधेरा होता है,हमें तब कुछ भी दिखाई नहीं देता. तब उसने कहा कि नहीं अँधेरा कुछ नहीं होता,यह सिर्फ उस स्थान पर प्रकाश का अभाव है. हमें फिजिक्स में हीट  यानी गर्मी के विषय में पढ़ाया जाता है. हमें फिजिक्स में प्रकाश के बारे में पढ़ाया जाता है. ठण्ड या अँधेरे के विषय में नहीं. यह तो हमारी सोच है. इसी तरह दुनिया में बुराई है ही नहीं,यह तो अच्छाई का अभाव है,अच्छाई  की अनुपस्थिति भर है. यह तो हमारे सोचने का दृष्टिकोण है. 
मेरे एक मित्र की नातिन घर में पड़े पुराने डब्बे,बॉक्स और रद्दी में फेंकने की चीजें इकठ्ठा किया करती थी. सब लोग उसे घर में कबाड़वाली कहते थे.मैंने पूछा आखिर वह इन सब चीजों को इकठ्ठा करके करती क्या है. तो पता चला एक दिन उसने पुराने पुष्टे से रॉबोट तैयार किया है. इसी तरह उसने छोटी छोटी कुछ रचनात्मक वस्तुएं तैयार कर दी. मैंने कहा,देखो यह उसके उम्र के हिसाब से काफी अच्छी सोच है और उसे इसके लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. हो सकता है उसका दिमाग रद्दी वस्तुओं में से कुछ नए सृजन की प्रेरणा देता हो. 
इसलिए हमारी सोच में सदैव भिन्नता होना चाहिए. अलग-अलग पहलु होना चाहिए,अलग दृष्टिकोण होना चाहिए. हो सकता है इससे कुछ नई रचनात्मकता उजागर हो,नया सृजन हो. 
मूल तत्व एक ही है. रूप भिन्न-भिन्न हैं. कितने ही डिजाइन के,आकार-प्रकार के कलात्मक,गठीले गहने हो सकते हैं,किन्तु मूल तत्व उसमें सोना है, केवल उसे ढालना होता है. नदी,नालों, तालाब, समुद्र, उसकी लहरें, फेस , भाप, बर्फ सब अलग-अलग रूप हैं, मूल तत्व एक ही है पानी. एक विराट सागर लहरें मार रहा है. लहरें ज्यादा देर तक नहीं टिकतीं. क्योंकि इसको टिकाये रखने के लिए उतनी क्षमता विकसित होना चाहिए, लेकिन क्षण भर ही सही दिखाई तो दे. विराट समुद्र की लहरें,हम सब उसी की तरंगें हैं. एक ही सूरज प्रकाशित है,बाकी सब उसकी किरणें हैं.एक ही संगीत बज रहा है,बाकी सब उसके अलग-अलग स्वर हैं. केवल गैस्टाल्ट की, दूसरे नजरिये की जरुरत है. 

मेरे एकाकीपन के साथी

कुछ वर्ष पूर्व मैं दो महीने के लिए ट्रेनिंग के सिलसिले में आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में रहा था।आंखों के ऑपरेशन की नई तकनीक विकसित हुई थी और बिना टांके के मोतियाबिंद ऑपरेशन किए जाने लगे थे। केंद्र सरकार ने काकीनाडा के श्री किरण इंस्टीट्यूट को ट्रेनिंग के लिए नामित किया था।उसी तकनीक के प्रशिक्षण के लिए म.प्र. सरकार ने मुझे वहां भेजा था। नया प्रदेश,नई भाषा,नया वातावरण। अलग ही प्रकार का अस्पताल का माहौल। कोई हिंदी बोलनेवाला भी नही।केवल दो - तीन मुस्लिम स्टाफ के सदस्य हिंदी समझते थे। अंग्रेजी भी टूटी फूटी।केवल डॉक्टरों के साथ ही संवाद हो पाता था। वे भी केवल तीन थे। डॉ.माधवी मधु अन्तर राष्ट्रीय ट्रेनर थी। दो मिनिट में मोतियाबिंद का ऑपरेशन करती थी,लेंस प्रत्यारोपण सहित।  अमेरिका और कनाडा भी गई थी ट्रेनिंग देने के लिए।
  लेकिन मैं शीघ्र ही उस वातावरण में घुल - मिल गया।तेलुगु हिंदी भाषा सिखाने वाली पुस्तक खरीद लाया और लोगों से संवाद भी स्थापित करने लगा। ग्रामीण क्षेत्र के लोग तो हिंदी अंग्रेजी कुछ भी नहीं समझते थे। फिर भी भाषा मेरे लिए कोई अड़चन नहीं बनी।जल्दी ही उनसे तेलुगु में बातें करने लगा और अकेले भी दो नेत्र शिविर संचालित किए।नई भाषा सीखने का अलग ही आनंद और अनुभव होता है। लेकिन तेलुगु भाषा मुझे केवल दो महीने के लिए ही उपयोग में आनेवाली थी।उसके बाद तेलुगु भाषी लोगों से संपर्क न्यून ही रहनेवाला था,अतः भूलना भी स्वाभाविक था।
   प्रारम्भ के आठ दस दिन मुझे अस्पताल के तीन चार कर्मचारियों के साथ रहना पड़ा।लेकिन फिर मेरी वाजिब शिकायतों को ध्यान में रखकर अस्पताल प्रबंधन  ने काकीनाडा शहर में दो कमरों का मकान मेरे लिए किराए से लिया।सुबह का नाश्ता और दोपहर का भोजन और चाय काफी की व्यवस्था अस्पताल में थी।शाम के भोजन की व्यवस्था मुझे स्वयं करना थी।दक्षिण भारत में भोजन अपने पसंद का मिलना दुरूह बात है। शुरु में ब्रेड टोस्ट से काम चलाया।फिर किस्मत से मुझे एक उत्तर भारतीय लड़का मिल गया जो शाम को ठेला लगाता था, जहां पराठे और सब्जी मिल जाया करती थी।उससे बहुत राहत मिली।अस्पताल का समय सुबह आठ से शाम चार बजे तक था। अस्पताल की बसें स्टाफ और मरीजों को लाने ले जाने के लिए हर एक घंटे शहर की ओर दौड़ा करती।शाम को साढ़े चार बजे तक मैं अपने कमरे में आ जाया करता था।शाम को नाश्ते के लिए ब्रेड और बिस्कुट भी लाकर रखता था। ब्रेड या बिस्कुट खाते समय उसका चुरा या टुकड़े नीचे गिर जाया करते थे।
    एक दिन मैंने ध्यान से देखा कि  दरवाजे की चौखट से निकलकर चींटियों की लाइन अलमारी तक लगी थी, जहां ब्रेड का चूरा गिरा हुआ था। दो तीन दिन तक मैंने उनका निरीक्षण किया। शाम के उसी समय चींटियां दरवाजे की चौखट से निकलकर अलमारी तक लाइन में आती जाती रहती। मैं रोज उनके लिए ब्रेड के छोटे छोटे टुकड़े और चूरा गिराने लगा।
  एक दिन मैं सावधानी पूर्वक ब्रेड लेकर पलंग पर आ बैठा।चींटियां अपने नियत समय पर चौखट से निकलकर अलमारी की ओर जाने लगी,किन्तु उन्हें कुछ सूझ नही पड़ी तो वे सब इधर - उधर भटकने लगी।उन्हें ब्रेड की गंध तो आ रही होगी,किन्तु ठिकाना नही मिल रहा था। मैंने थोड़ा चूरा पलंग के नीचे गिरा दिया। तुरंत चींटियों ने अपने लक्ष्य की ओर दौड़ लगा दी।और फिर ये तो रोज का नियम बन गया। दो महीनों में चींटियों से मेरी पक्की दोस्ती हो गई।उनसे मैं तेलुगु में ही बातें करने लगा।मैंने उनके नाम भी रख दिए और उनको नाम से पुकारने लगा।उनके बारे में जानने की मेरी उत्सुकता बढ़ी।मैंने प्राणी शास्त्र के अपने ज्ञान को खंगाला।उन दिनों में इंटरनेट और स्मार्ट फोन का प्रचलन नही था।चींटियां आर्थ्रोपोडा फाइलम के इंसेक्टा वर्ग में आती हैं,इतना तो याद था। बी. एस सी. के प्रथम वर्ष में तिलचट्टों और चींटियों का विच्छेदन किया सीखा था। हाई स्कूल में मेंढक का विच्छेदन किया था,इतना तो याद था,लेकिन बाकी बातें याद नहीं आ रही थी। मैं रहता था उसी बिल्डिंग में लड़कियों का हॉस्टल था।उनमें से एक  एम. एस्सी. की छात्रा की प्राणिशास्त्र की पुस्तक मांग लाया और चींटियों के बारे में जानकारी जुटाई।
   चींटियों की अनेक ज्ञात प्रजातियां हैं।चींटियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। केवल अंटार्कटिका को छोड़कर। चींटियां विभिन्न आकार और प्रकार की होती हैं।एक मि. मी.से लेकर पांच मि.मी. तक की होती हैं।चींटियां अलग अलग रंगों में भी मिलती हैं,किन्तु ज्यादातर लाल और काली चींटियां ही पाई जाती हैं।चींटियों की १२०००से अधिक प्रजातियां ज्ञात हैं।चींटियों के तीन मुख्य भाग होते हैं, सिर, धड और पैर।बीच में पतली कमर होती है।
    चींटियों के सिर में संवेदनशील अंग होते हैं।आंखे उनकी अति संवेदनशील और तुरंत कार्यवाही के लिए तत्पर रहती हैं। आंखे रोशनी को आसानी से पहचान लेती हैं। ऑस्ट्रेलिया की बुल डोग चींटी तो काफी दूर तक देख सकती है। आगे की ओर दो एंटीना होते हैं, जो आसपास की हलचल पर नजर रखते हैं।चींटियों के पेट के हिस्से में ही महत्वपूर्ण अंग होते हैं, जैसे श्वसन तंत्र, मल विसर्जन तंत्र और प्रजनन अंग।
  चींटियों का समाज भी विकसित समाज होता है, जिनमें छोटे बड़े कार्यकर्ता या सैनिक होते हैं। पुरानी वृद्ध चींटियां नवागत या नवजात चींटियों का भरण - पोषण करती हैं।प्रायः चींटियों की अपनी अपनी कॉलोनियां होती हैं, और उसमे रानी चींटी ही प्रजनन योग्य होती है।एक कॉलोनी में एक से अधिक रानी भी हो सकती है। शायद ही कभी बिना रानी के कोई कॉलोनी होती है। प्रत्येक कॉलोनी में रानी से संभोग करने के लिए झगड़े होते हैं। कोई कोशिश करता है तो सैनिक उस पर हमला करते हैं। यदि वह योग्य ड्रोन स्त्रावित करता पाया जाता है तो सैनिक उसे रानी के पास ले जाते हैं। चींटियां आपस में स्पर्श और आवाज से संवाद स्थापित करती हैं। उनके एंटीना में सूंघने की तीव्र शक्ति होती है।चींटियां नाचती भी हैं और उनके पैरों में बंधे घुंगरू की आवाज ईश्वर भी आसानी से सुन लेता है।
       वैसे तो चींटियों का संसार अन्य प्राणियों की तरह ही विस्तृत, विकसित और संगठित होता है। प्रकृति ने उन्हें आत्मरक्षा का अधिकार भी दिया है,जिसका वे समय पर उपयोग करती हैं।भले ही कमजोर हों,लेकिन अच्छे पहलवान की नाक में दम भरने की क्षमता रखती हैं।उनके बारे में आजकल तो इंटरनेट पर जानकारी विस्तार से मिल सकती है।लेकिन मेरी उत्सुकता तो सिर्फ दो महीने के लिए काकीनाडा में अकेले रहते हुए भी अपने मूक साथी के रूप में संवाद स्थापित करने की ही थी। उनके संसार में झांकने का मौका मिला और अपने एकाकीपन को कुछ हद तक दूर करने में सहायक रहा। इसी में मुझे आनंद मिला,मेरी ज्ञान वृद्धि हुई,इसी की खुशी है।
     अन्तिम दिन विदा लेते समय मै ब्रेड का एक बड़ा पैकेट उनके लिए रखकर आया था। पता नही कितने दिन चला होगा। या कोई नया किरायेदार आया होगा और इससे भी अधिक मीठी चीजें उनके नसीब में लिखी होंगी।


अरूण गोखले 


 पूर्वोत्तर यात्रा भाग एक - शिलाँग 
( 14 मई से 19 मई 2016)

भारत का पूर्वोत्तर भाग यानी "सात बहनों का प्रदेश"।आसाम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड,मिजोरम,
अरुणाचल प्रदेश का भूभाग और सिक्किम को मिलाकर ये पूर्वोत्तर भारत कहलाता है। यहाँ से नेपाल,भूटान, चीन, बांग्लादेश और बर्मा की सीमाएं भी मिलती हैं। काफी पढ़ा था यहां की प्राकृतिक सुंदरता के बारे में। मन में उत्कट इच्छा भी थी एक बार इसे देखने की। शायद ईश्वर ने भी हमारी इच्छा पूरी करने का सोच लिया क्योंकि उन्ही दिनों में मेरा भतीजा प्रद्युम्न जो वायु सेना में विंग कमांडर के पद पर है उसकी पोस्टिंग शिलाँग में हो गई। उसे वहाँ वायु सेना स्टेशन क्षेत्र में बड़ा मकान भी मिल गया था। उसने और उसकी पत्नी अदिति ने हम सब परिवार जनों को शिलाँग आने का न्यौता दिया। पूर्वोत्तर को देखने की सबकी प्रबल इच्छा थी ही सो कार्यक्रम तय हो गया। 14 मई को इंदौर से दिल्ली तक ट्रेन से  और फिर दिल्ली से हवाई यात्रा करके गौहाटी तक पहुंचे। गौहाटी में हमें कुछ देर ठहरना था इसलिए प्रसिद्ध कामाख्या मंदिर को देखा। विशाल ब्रह्मपुत्र को देखना भी विस्मयकारी था। गंगा से भी विशाल पाट वाली ब्रह्मपुत्र अपने रौद्र रूप में हो तो सारे आसाम को डुबा सकती है ये सोचकर भी मन में सिहरन सी दौड़ गई।
गौहाटी से शिलाँग तक कार से सफर करना था जिसकी व्यवस्था भतीजे ने पहले ही कर दी थी। शिलाँग सिटी से आगे 1200 फ़ीट उपर "शिलाँग पीक" है जहां वायुसेना स्टेशन स्थित है । वहीं प्रद्युम्न को बड़ा स्टाफ आवास मिला है हम सबके रहने की व्यवस्था उसके घर पर ही थी । गौहाटी से लगभग चार घण्टे की यात्रा कर हम शिलाँग उसके घर पहुंचे। ऊँचे नीचे पहाड़ी रास्तों और चारों तरफ की हरियाली ने पहले ही मन मोह लिया था और सफर की थकान महसूस नही होने दी। शिलाँग- मेघालय की राजधानी। मेघालय नाम अत्यंत सार्थक है क्योंकि ये वाकई बादलों का घर है। बादलों का डेरा यहां हमेशा रहता है। बारिश कभी भी और कितनी भी हो सकती है।

घर पहुंचते पहुंचते रात हो चुकी थी। अदिति ने हम सबका स्वागत किया । फ्रेश होकर हम सबने भोजन किया और फिर रात्रि विश्राम। पूर्वोत्तर में सुबह बड़ी जल्दी हो जाती है, इसका अहसास हमें तब हुआ जब सुबह के चार बजे ही सूरज के दर्शन हो गए। नहा धोकर नाश्ता करने के बाद हम भतीजे के साथ पूरा वायुसेना स्टेशन घूमे। यहां पर बेहद शक्तिशाली राडार लगे हैं जिनसे शत्रु पक्ष की हलचलों पर लगातार और पूरी सतर्कता के साथ नज़र रखी जाती है । पास ही शिलाँग व्यू पॉइंट है जहाँ से नीचे घाटी में बसे शिलाँग शहर का शानदार नज़ारा दिखाई देता है। बाकी का आधा दिन हमने शिलाँग शहर देखने में बिताया।
अगले दिन हमे चेरापूंजी जाना था। बचपन में सुना था कि वहां सबसे ज्यादा वर्षा होती है । सुबह नाश्ता करके हम चेरापूंजी के लिए निकल गए। रास्ते भर बादल छाए हुए थे। बारिश भी रुक रुक कर हो रही थी। झरनों के गिरने की आवाज सुनाई दे रही थी पर घने बादलों के चलते झरने दिखाई नही दे रहे थे इसलिए निराशा हो रही थी। पर ये तो पता लग ही गया था कि वाकई चेरापूंजी में कितनी बारिश होती है। वहां से वापसी में रामकृष्ण मिशन संग्रहालय देखा । इस संग्रहालय में पूर्वोत्तर के सभी राज्यों के संस्कृति और सभ्यता को दर्शाती झांकियां हैं। 

तीसरे दिन हमें बंगलादेश की सीमा पर स्थित "डौकी" गाँव तक जाना था। इसके रास्ते में पहला मुकाम था रूट ब्रिज । पहाड़ी नदियों को पार करने के लिए आसपास के पेड़ों की जड़ों से ही पुल बने/बनाये हैं जिन से आसानी से नदी को पार किया जा सकता है । नीचे कल कल बहती नदी और आसपास का जंगल मिलकर एक सुंदर सा समां बाँध देते हैं। यहाँ पर बांस का एक ऊँचा मचान है जिस पर चढ़ कर बांग्लादेश की सीमा पार का दृश्य दिखता है। इस ऊँचे मचान पर चढ़ना एक अच्छा एडवेंचर था। इसके बाद हमारा अगला ठिकाना था "क्लीनेस्ट विलेज"। mawlynnong - मौलिनोंग ये है भारत का सबसे स्वच्छ गाँव। सचमुच यहाँ गंदगी का कोई नामोनिशान नही। छोटे छोटे खूबसूरत घर ,रँगबिरँगी फूलों से सजे बगीचे, पक्की सड़कें, सुलभ शौचालय की व्यवस्था और यहाँ के स्वच्छता पसंद रहवासी इस सबने मिलकर इसे सबसे स्वच्छ गाँव बनाया। हमारी इस यात्रा के अगले ही वर्ष जब इंदौर को सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया तो मन में दोहरी ख़ुशी का भाव था क्योकि हमने सबसे स्वच्छ गाँव को भी देखा था और सबसे स्वच्छ शहर में हम रहते हैं। बहरहाल आगे डौकी तक की यात्रा में दो अति विशाल झरने (जिन्हें बीओपी हिल फॉल्स कहते हैं) दिखाई दिए जिसने पिछले दिन की निराशा को धोकर रख दिया। पानी की विशाल मात्रा को ऊपर से गिरते देखना एक अद्भुत अनुभव था जो हमने पहली बार महसूस किया था। इन झरनों का पानी आगे डौकी नदी में मिलता है जो बांग्लादेश जाती है। बांग्लादेश की सीमा पर राष्ट्रध्वज को वंदन कर हम वहां से वापस लौटने लगे। वापसी यात्रा बहुत कठिन साबित हुई क्योकि घनघोर बारिश शुरू हो गई और पहाड़ों पर से सैकड़ों छोटे बड़े झरने फूट पड़े। प्रकृति का रौद्र रूप देखकर हम सब सहम से गये थे। पर ईश्वर का स्मरण करते करते सुरक्षित वापस शिलाँग पहुँच गये। 
अगला दिन शिलाँग में हमारा आखरी दिन था । उस दिन हमने शिलाँग की कुछ स्थानीय साइट्स देखीं । तीन स्टेप में गिरने वाला एलिफेंट फॉल, प्राणी संग्रहालय, और बाज़ार जहां महिलाओं ने जम कर शॉपिंग कर के दुकानें खाली कर दीं और पुरुषों ने जेबें। एयरफोर्स म्यूज़ियम भी अच्छी जगह थी जहाँ लड़ाकू विमान, तोपें, असलहा और युद्ध पोशाखें रखीं हैं। वायुसेना के बारे में कई तरह की जानकारी में वृद्धि हुई और गर्व भी महसूस हुआ। 
दूसरे दिन अलसुबह हम शिलाँग की यादें मन में लिए गंगटोक के लिए रवाना हो गए।

पूर्वोत्तर यात्रा भाग 2 गंगटोक 
(20 मई से 23 मई 2016 )

20 मई की सुबह हम शिलाँग से गंगटोक के लिए निकले। पहले शिलाँग से गौहाटी होते हुए दोपहर तक न्यूजलपाईगुड़ी पहुँचे । न्यू जलपाई गुड़ी,और बागडोगरा ये सिलीगुड़ी शहर के में ही आते है। रेलवे स्टेशन न्यूजलपाईगुड़ी में है और एयरपोर्ट बागडोगरा में है।  न्यूजलपाई गुड़ी से गंगटोक का हमारा पॅकेज टूर बुक था। शाम 6 बजे वहां से दो इनोवा कार में गंगटोक के लिए रवाना हुए। अभी तक के सफर की थकान थी इसलिए जल्द ही सब ऊँघने लगे। रास्ते में रात दस बजे एक छोटे से हॉटेल में खाना खाया। तड़का दाल -चपाती और चावल के साथ दही। रात एक बजे के लगभग हम गंगटोक में अपने निर्दिष्ट होटल पहुंचे और अपने अपने रूम में जाकर बिस्तर पर ढेर हो गए।

सुबह उठकर रूम की बालकनी से बाहर का नज़ारा देखा तो मन प्रसन्न हो गया। आस पास चारों तरफ ऊँचे पहाड़ और बीच घाटी में बसा खूबसूरत शहर गंगटोक। यहाँ घरों की रंगबिरंगी छटा दिखाई दी जो सूरज की रोशनी में और आकर्षक लग रही थी। यहाँ की भाषा और वेशभूषा शिलाँग से बिलकुल अलग थी । नेपाल से मिलती जुलती। सिक्किम की सीमाएं नेपाल-भूटान और चीन से मिलती हैं। इसका स्पष्ट प्रभाव यहां दिखता है । टूर पैकेज के अनुसार पहले दिन हमने गंगटोक के आसपास के कुछ स्थानीय स्थल देखे। जिनमे 'बनझकरी' झरना बहुत सुंदर था। उसके बाद हमने गणेश मंदिर देखा। एक छोटा सा लेकिन बहुत सुंदर बना हुआ ये मंदिर और उतनी ही सुंदर गणेश मूर्ति देखकर मन प्रसन्न हो गया। और उसके पास टॉप व्यू पॉइंट है जहाँ से पूरी घाटी बेहद सुंदर नज़र आती है।
अगला आकर्षण था फ्लावर शो । बहुत पहले इंदौर में गुलदाऊदी के फूलों का एक विशेष मेला लगता था वैसा ही कुछ पर उससे काफी बड़ा। इतने अलग अलग आकार-प्रकार और रंगों के फूल यहाँ थे जिन्हें देखकर हम अचंभित रह गए क्योकि हमने पहले ऐसे फूल सिर्फ डिस्कवरी चैनल पर देखे थे प्रत्यक्ष में नही। यहाँ हमारी कुछ बौद्ध भिक्षुओं से भी मुलाकात हुई । बौद्ध धर्म का यहाँ काफी प्रभाव नज़र आया। भारत के हर शहर की तरह यहाँ भी एम.जी. रोड है जो यहाँ का मुख्य बाजार है इसलिए स्वाभाविक ही ये जगह महिलाओं की पसंदीदा है। यहाँ आना तो आवश्यक ही था वरना ये यात्रा पूरी नही मानी जाती। एक बार फिर हमारी जेबें खाली हो गईं । भला हो एटीएम का जो जगह जगह थे , और चालू हालत में थे।

अगला दिन हमारी पूर्वोत्तर की यात्रा का सबसे "हाई पॉइंट" था। याने हम उस ऊंचाई तक जाने वाले थे जहाँ इससे पहले हम कभी नही गये थे। ये था 14216 फीट की ऊंचाई पर स्थित "नाथूला दर्रा" । यहां पर जाने के लिए पहले से अनुमति लेनी पड़ती है। पर हमारे टूर पॅकेज में ये अनुमति शामिल थी इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई। यहां का बेहद दुर्गंम रास्ता  गाडी चलाने वाले ड्रायवरों की पूरी तरह परीक्षा लेता है और यात्रियों की जान जैसे सूली पर टंगी होती है। पूरी तरह प्रशिक्षित और दक्ष ड्राइवर ही यहाँ गाडी चला सकते हैं। यहाँ के ड्राइवरों का यातायात नियमों का पालन और अनुशासित तरीके से गाड़ी चलाना सचमुच काबिलेतारीफ है। नाथूला दर्रे की चढ़ाई शुरू हुई तो आसपास पेड़ों और पहाड़ों पर हरियाली छाई दिखाई दे रही थी पर आधे रास्ते तक आते आते हरियाली खत्म हो गई और पहाड़ खुश्क और पथरीले नज़र आने लगे। और थोड़ा ऊपर जाते ही पहाडों पर बर्फ की चादर दिखने लगी। रास्ता और कठिन होता गया। जब हम "टॉप" पर पहुंचे तो तापमान "बॉटम" पर था यानि शून्य से कुछ नीचे ही था।

गाडी से उतर कर आगे लगभग 200 मीटर ऊपर पैदल चढ़ कर जाना था। गर्म कपड़े और जूते पहन कर एक लकड़ी के सहारे बर्फ में पैर धँसाते हुए आगे बढ़ने लगे। समझ में आ गया कि हिमालय क्षेत्र में पर्वतारोहण कितना दुष्कर कार्य है। आख़िरकार धीरे धीरे हम चोटी पर पहुंचे जहां भारत की सीमा समाप्त होती है और चीन (पहले तिब्बत) की सीमा शुरू होती है। दोनों तरफ के सीमा सुरक्षा बल मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी कर रहे थे। हालांकि चीन की तरफ कोई यात्री नजर नही आ रहे थे। भारत की तरफ काफी संख्या में यात्री मौजूद थे। चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो अद्भुत नजारा था। बर्फ से ढंके पहाड़ और उनकी चोटियां दिखाई दे रहीं थीं जिनमे से कुछ चीन में थीं तो कुछ नेपाल में। सूरज की किरणों और बादलों की धूपछांव से इन पहाड़ों का रूप रंग पल पल बदल रहा था। ऐसा नजारा हमने कभी नही देखा था ,अद्भुत, अवर्णनीय और पैसा वसूल था। यहां किसी किसी को ऑक्सीजन की कमी से तकलीफ भी हो सकती है जो सौभाग्य से हम में से किसी को नही हुई। लगभग दो घण्टे वहाँ बिताने के बाद ड्राइवर बोला की ऊपर मौसम कभी भी खराब हो सकता है इसलिए अब निकलना चाहिए। तीव्र अनिच्छा के बावजूद हमने वहां से निकलना ही ठीक समझा। चोटी से उतरते समय ज्यादा सावधानी जरूरी थी क्योंकि बर्फ में फिसलने का डर था। धीरे धीरे नीचे आकर  हमने वापसी यात्रा शुरू की। बाबा हरभजन का बंकर, एलिफेंट झील ,के अलावा एक शिवमंदिर जहां शिवजी जी एक बड़ी सी मूर्ति है और उसके पीछे से गिरते हुए झरने का आकर्षक दृश्य ये वापसी यात्रा के कुछ अच्छे स्पॉट थे। "याक" नामक प्राणी जिसका नाम हमने सुन रखा था उसे पहली बार यहां देखा । पर यात्रा का कुछ रोमांच अभी बाकी था। जैसा कि ड्राइवर ने कहा था मौसम खराब हो गया था और गनीमत ही थी हम आधे रास्ता उतर चुके थे। मूसलाधार बारिश शुरू हो गई थी। रास्ता खतरनाक हो चला था। पहाड़ों पर से गिरता पानी झरनों की शक्ल में गाडी पर गिर रहा था। यात्रा में दूसरी बार (पहली बार से ज्यादा) डर महसूस हुआ। कहीं रुकने का कोई अर्थ नही था क्योंकि मौसम कब तक ऐसा रहेगा पता नही था। हमने एक बार फिर ड्राईवर की समझ, उसका रास्ते का ज्ञान और उसकी ड्राइविंग की दक्षता पर भरोसा किया।साथ ही श्रीरामरक्षा स्तोत्र ,भीमरूपी महारुद्रा, हनुमान चालीसा सबका पाठ भी होने लगा। लगभग एक घण्टे की ड्राइविंग के बाद मौसम ने कुछ राहत दी , और हमने चैन की सांस ली। एक जगह रुक कर चाय नाश्ता किया। यहाँ नाश्ते/खाने के नाम पर जगह जगह सिर्फ मोमोज़ या मैगी ही मिलते हैं और वही खाना हमारी मजबूरी थी क्योकि भूख लगी थी। आख़िरकार सुरक्षित अपने होटल पहुंचकर हमने ईश्वर को धन्यवाद दिया।

पूर्वोत्तर की इस यात्रा में दो बार बिगड़े मौसम को छोड़कर ( जो यहां हमेशा ही अपेक्षित रहता है) और कोई तकलीफ किसी को नही हुई। गंगटोक से सिलीगुड़ी की वापसी यात्रा हमने दिन में की इसलिए पूरे रास्ते साथ साथ चलती 'तीस्ता' नदी ने हम सबका मन मोह लिया। कभी संकरी तो कभी चौड़ी, कभी धीमे धीमे बहती तो कभी तेज रफ्तार पकड़ लेती तीस्ता को देखना एक आनंददायी अनुभव था। इस यात्रा ने हमें प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर देश के इस उत्तर पूर्वी भाग को देखने , यहाँ की वेशभूषा, सांस्कृतिक और भाषाई विविधता और भौगोलिक विशिष्टता को समझने के साथ ही यहाँ के निवासियों से मिलने और बात करने का मौका दिया। इस संदर्भ में ये यात्रा हर तरह से एक यादगार थी। यहाँ हिंदी भाषा को लेकर हमे ऐसी कोई दिक्कत नही हुई जैसी दक्षिण भारत के राज्यों में हमेशा होती है। यहाँ के निवासी हिंदी अच्छी तरह समझतें हैं और बोलते हैं  इसलिए उनसे बात करके ये भी महसूस हुआ कि दिल्ली से दूर होने और केंद्र की सरकारों द्वारा यहाँ  के राज्यों के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार के कारण यहाँ के निवासियों में नाराजगी और अलहदगी का भाव भी है जिस पर ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है। शायद इसीलिए वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जी ने उत्तर पूर्वी भाग के विकास के लिए विशेष कदम उठाये हैं। पूर्वोत्तर की यादों को संजोए 25 तारीख को हम वापस इंदौर पहुंचे। पर इस यात्रा का नशा अगले कई दिनों तक दिलो दिमाग पर हावी रहा।

पिकनिक - इंदौर के आसपास

इंदौर के पास घूमने के लिए कई जगह हैं। पातालपानी, तिंछा जलप्रपात, सीतलामाता जलप्रपात, काला कुंड, बामनिया कुंड, जाम गेट, वांचू पॉइंट, जानापाव, यशवंत सागर, लोटस वैली-गुलावत, नर्मदा-क्षिप्रा संगम (उज्जैनी), नर्मदा-गंभीर संगम (बड़ी कलमेर), पितृ पर्वत, ऐसी कई जगहें सभी को पता हैं। इसके अलावा यह ट्रेकिंग जैसी जगह भी है, लेकिन इसके लिए काफी तैयारी की जरूरत होती है। आज मैं तीन खास जगहों की जानकारी दे रहा हूं जो इंदौर से करीब 25 से 65 किलोमीटर की दूरी पर हैं। दोपहिया या चार पहिया वाहन से आना-जाना आसान है। चूंकि हम दोनों यात्रा करना चाहते हैं, हम कभी-कभी आस-पास की ऐसी जगहों के बारे में पूछताछ करते हैं और मिलने पर वापस आ जाते हैं। हम अलग-अलग समूहों के साथ इन तीन स्थानों पर गए हैं। 

बिजासन माता मंदिर ग्राम टिनोनिया जिला देवास

स्थान का नाम जरूर बिजासन मंदिर है पर ये इंदौर के पश्चिमी क्षेत्र में हवाई अड्डे के पास स्थित प्रसिद्ध बिजासन मंदिर नही है। बल्कि पूर्वी क्षेत्र में बायपास से लगभग 25 किमी दूर स्थित है। यहाँ जाने के लिए बायपास से कनाड़िया - बुरहान खेड़ी होते हुए सेमलिया चाऊ रोड पर स्थित टिनोनिया गाँव तक जाना पड़ेगा. यहीं एक छोटी सी पहाड़ी पर ये मंदिर है। पूरा रास्ता दोहरा और डामरीकृत है इसलिए आसानी से जा सकते हैं। पहाड़ी पर भी ऊपर तक जाने के लिए रास्ता बना हुआ है। पैदल भी चढ़ा जा सकता है और ड्राइविंग अच्छी हो तो ऊपर तक कार भी ले जाई जा सकती है । मंदिर बहुत छोटा सा है । बहुत ज्यादा आकर्षक भी नही और यहां ज्यादा तामझाम भी नही है। आसानी से दर्शन हो जाते हैं। ऊपर से आसपास का दृश्य बहुत नयनाभिराम दिखता है । विशेषकर जब हरियाली होती है  सितंबर से मार्च तक जाने के लिए बढ़िया समय है। ऊपर भी बैठने आदि के लिए जगह है और यदि चाहें तो पहाड़ी से नीचे उतरकर कुछ ही आगे बड़ और नीम के विशाल वृक्ष हैं वहां भी  पच्चीस-तीस लोग  आसानी से एक वृक्ष के नीचे बैठ सकते हैं। परिवारिक या सामूहिक पिकनिक मनाने के लिए बहुत अच्छी जगह है। पीने का पानी साथ ले जाना जरूरी है
 
गौरी-सोमनाथ मंदिर , गाँव- चोली

इंदौर से लगभग 65 किमी दूर महू-मण्डलेश्वर मार्ग पर चोली गाँव आता है । वहीं ये प्राचीन शिव मंदिर स्थित है। यहाँ जाने के लिए इंदौर से राऊ-महू होते हुए खरगोन हाइवे पकड़ें। आगे ग्राम बड़गोंदा के बाद 'जाम गेट' आयेगा जो एक अच्छा व्यू पॉइंट है । चाहे तो यहां एक ब्रेक ले सकते हैं । इसके लगभग दस किमी बाद चोली गाँव आएगा। रास्ते पर गौरी- सोमनाथ मंदिर जाने के लिए संकेत दिया हुआ है। उसके अनुसार चलते हुए आप एक बड़े तालाब के किनारे स्थित इस मंदिर में पहुंच सकते हैं। यहां एक ही प्रस्तर से बना 8 फीट ऊँचा शिवलिंग हैं । ऐसी मान्यता है कि ये शिवलिंग पांडवों द्वारा स्थापित किया गया है। प्रस्तर का ही एक अधूरा बना नन्दी भी है । वर्तमान मंदिर ग्यारहवीं शताब्दी का बना हुआ है जिसका जीर्णोद्धार सत्रहवीं शताब्दी में होलकर साम्राज्य के दौरान किया गया। इस मंदिर को सरकार द्वारा संरक्षित घोषित किया गया है। तालाब के किनारे होने से ये जगह आकर्षक लगती है। सड़क अच्छी होने से जाना भी आसान है।

 कुशलगढ़ का किला

इंदौर से लगभग 60 किमी दूर तीन तरफ छोटी पहाड़ियों के बीच स्थित है कुशलगढ़ का किला। इंदौर से खरगोन हाईवे पर महू के 15 किमी बाद बायीं तरफ प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत बनी हुई सिंगल पर पक्की सड़क है । इस सड़क पर लगभग बारह किमी बाद पिपल्या-मांगल्या गांव आता है । इस गाँव से कुशलगढ़ जाने के लिए एक सूचना पट्ट दिया गया है जिसके अनुसार तीन किमी आगे कुशलगढ़ है। ये तीन किमी रास्ता कच्चा पर ठीक ठाक है । किला करीब 400 साल पुराना बताया जाता है। मध्यप्रदेश शासन के 1964 के अधिनियम के तहत राजकीय महत्व की ऐतिहासिक पूरातात्विक इमारतों में शामिल ये किला तत्कालीन स्थानीय शासक कुशलसिंह का बनवाया हुआ है। आठ एकड़ में बना हुआ ये एक गढ़ी नुमा छोटा सा किला है जिसके परकोटे के दीवारें सही सलामत हैं पर किले के अंदर बनी हुई दूसरी छोटी इमारतें खण्डर हो चुकी हैं। यहाँ बैठने के लिए पर्याप्त स्थान है। एक पानी की बावड़ी भी है जो अच्छी हालत में नही है। कुछ छोटी तोपें भी यहां रखी हुई हैं। परकोटे पर से आसपास की पहाड़ियाँ और हरे भरे खेत आकर्षक नज़र आते हैं। किले के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नही दी गई है। इसकी देखरेख और सुरक्षा हेतु दो केयरटेकर हैं जो वहीं के स्थानीय बाशिंदे हैं। इंदौर के आसपास फैमिली पिकनिक मनाने के लिए अच्छा स्थान है। केयर टेकर से बात करके भोजन बनाने और पानी की व्यवस्था की जा सकती है। फिर भी पीने का पानी साथ ले जाना बेहतर होगा।


दिव्या विळेकर 

"परिवार - परिवार होता है"।

 यह विषय बहुत ही सरलता और सहजता से परिपूर्ण है किंतु चर्चा के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। 'परिवार' वैसे तो इस शब्द को सुनते ही हम सभी को  अपने प्रियजनों की याद आना स्वाभाविक बात है ।हमें अपने बचपन की सलोनी यादों में खोने के लिए मजबूर करता है 'परिवार' सहज एक शब्द। इसमें प्रेम , विवाद, मतभेद जैसे अनेक गुण-अवगुण विद्यमान होने के बावजूद भी हम इसकी नींव सशक्त बनाने हेतु निरंतर प्रयास करते रहते हैं।  

परिवार का वर्गीकरण एकल एवं संयुक्त परिवार जैसे भागों में हुआ है। संयुक्त परिवारों की संख्या आजकल कम ही देखने को मिलती है। इसका कोई खास कारण नहीं ज्ञात हुआ है अपितु यह माना गया है कि प्रत्येक व्यक्ति का  निजी जीवन जीने का अपना तरीका होता है। भविष्य में कोई आपसी वैमनस्य उत्पन्न न हो इस वजह से भी व्यक्ति एकल परिवार में रहने की सहमति जताता है।

एकल परिवार में रहने का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्ति अपने शेष परिवार को भूल जाए, या उनके साथ वक्त भी ना बिताए । व्यक्ति को अपने सम्पूर्ण परिवार को साथ लेकर चलना होगा तभी वह एकल परिवार भी प्रेम की आपसी संयुक्तता का प्रतीक बन सकेगा।
उदाहरण के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि जब बच्चे किसी निजी कारणों से अपने परिवार को छोड़कर बाहर कहीं जाते हैं एक वही क्षण होता है जिस वक्त वह तय करते हैं कि परिवार भले ही एकल हो रहा है किन्तु रिश्ते सदैव संयुक्त रहेंगे।

   " रिश्तों में यदि सशक्तता हो तो एकल परिवार भी संयुक्त
      परिवार की कमी महसूस नहीं करेगा"।

 माता -पिता : एक नींव      

यह विषय अत्यंत ही अमूल्य है जिसे हम बहुधा समझकर भी नहीं समझना चाहते हैं । हमारी इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में हम उन लोगों को कैसे भूल जाते हैं? जिन्होनें हमें इस दुनिया में खड़े रहना सिखाया है, हमें आत्मनिर्भर बनाया है।वे लोग और कोई नहीं हमारे माता -पिता हैं।
हमारे माता - पिता की ज़िन्दगी हमारे बड़े होने पर ख़त्म नहीं होती अपितु उनकी परवरिश की परीक्षा उसी क्षण से प्रारंभ होती है जब उनके बच्चे बड़े होते हैं शिक्षित होते हैं एवं उनके माता - पिता का ठीक उसी तरह से ख्याल रखते हैं जिस तरह माता पिता ने उनका रखा होता है।

आज बच्चे पढ़ लिख जाते हैं अच्छी नौकरी में कार्यरत होने पर  माता - पिता को छोड़कर बाहर कहीं चले जाते हैं लेकिन फिर भी माता - पिता बड़े ही गर्व से अपने बच्चों की सफलता का गुणगान गाकर खुश रहते हैं। दुख उन्हें तब नहीं होता …जब बच्चे बाहर चले जाते हैं । वह तब अकेले रह जाते हैं जब उनके बच्चे उन्हें वह सम्मान, आदर नहीं देते जिनके वह हक़दार हैं।

जब बच्चों का उनके माता -पिता से स्नेह कम हो जाता है और वह अपने ही माता- पिता को जीवन का बोझ समझने लगते हैं उसी क्षण माता- पिता को उनके जीवन में एक बहुत बड़ी संपत्ति का नुकसान होता नज़र आता है। बच्चे बड़े होने पर उन्हें भले ही किसी कारणवश यदि वृद्धाश्रम में छोड़कर भी चले जाएँ तो उन्हें दुख नहीं होता है किंतु यदि वही बच्चे उन्हें दोबारा देखने भी ना आएँ तब उनका कोमल -सा हृदय टूटकर बिखर जाता है। उनके  जीवन का उद्देश्य ही उनके बच्चों की सफलता होता है।  प्रश्न कीजिए स्वयं से फिर हम क्यों उन्हें ही अपने जीवन में उचित स्थान ,सम्मान और नहीं दे सकते?

"आपके माता-पिता आपके सफल जीवन की इमारत की नींव हैं,नींव कमज़ोर कर देने से इमारत का कमज़ोर होना तय है ।
नींव मजबूत कीजिये, इमारत ख़ुद-ब-ख़ुद आसमान छुएगी"।

साक्षरता


यह विषय बहुत ही साधारण है लेकिन एक चर्चा के बाद अपने आपमें  सीमित हो जाता है । ना इसपर कोई संवाद होता है ना ही विचार-विमर्श ।
हम सभी साक्षरता के प्रभुत्व में इतने खो गये हैं , जिसके चलते हम शिक्षा का महत्व ,उसकी उपयोगिता को भूल रहे हैं । आज प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर साक्षर है और होना भी चाहिए लेकिन शिक्षित व्यक्तियों की संख्या हमें कम ही देखने को मिल रही है। परिणास्वरूप जब व्यक्ति किसी कार्य को व्यवहारिक रूप से करने जाता है तब उसे इस बात का अहसास होता है कि उसके पास तमाम डिग्री और प्रमाण पात्र होने के बावजूद  वह उस विषय में वास्तविक रूप से शिक्षित नहीं है।
इसका कारण यह है कि एक छोटे  बच्चे से लेकर किसी भी आयु के व्यक्ति को यदि शिक्षा दी जाती है तो उसका केंद्र-बिंदु  ज्ञान हासिल करना ना होकर अधिक अंकों से साक्षर कहलाना बन गया है।समय-मूल्यांकन की कमी भी इसका एक कारण है।साक्षरता समय लेती है और शिक्षा व्यवहारिकता।यदि इस प्रक्रिया पर रोक नहीं लगायी गयी तो इसका परिणाम यही होगा कि हम साक्षरता की तुलना शिक्षा  से करते रह जाएँगे और वास्तविक ज्ञान से वंचित रह जाएँगे।
इसलिए हमें अपने स्तर पर शिक्षित होना होगा ।

किसी भी कार्य को करने से पहले उसकी जानकारी रखनी होगी और उसकी प्रतिक्रिया के विषय में सोचना होगा ।

  "   शिक्षा की नींव बनाए, साक्षरता का आवास "

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