पुरूषोत्तम सप्रे, प्रशांत कोठारी,भारती पंडित, भावना दामले
माधुरी खर्डेनवीस, माया जोगळेकर, मीनल विंझे, मृणालिनी घुले
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पुरूषोत्तम सप्रे
शून्य
अब जाकर कहीं देख रहा हूँ
कितना बड़ा शून्य है
यह दुनिया ...
वर्ना तुम थीं तब
तुम्हारे इर्द-गिर्द ही
सिमटकर रह गई थी।
मेरी खुशी
कितनी एकजाई हो गयी थी
तुम और मेरी खुशी
जो दमका करे थी
तुम्हारी बिन्दिया के संग
झूमती थी
तुम्हारे झूमकों के संग
गले के हार संग तुम्हारे
झूला करती
गुनगुनाती तुम्हारी चूड़ियों की
खनकती ताल पर
और इतराती थी
तुम्हारे लहराते आँचल संग
घूमा करती
सारा घर- आँगन
तुम्हारी पायल की
छमक के पीछे
अब हो गयी है
बेनिशाँ
तुम्हारे कदमों की राह चलकर ...!
(एकजाई = एकजीव)
सांत्वना
जब कभी देर शाम
लौटता हूँ घर
और भूल जाता हूँ कि
कोई नहीं है
अधीरता से आँगन का फाटक खोलने वाला
जानकर मन बहुत उदास होता है
और पाता है
खुद को नितांत अकेला...
धीरे से तब उतर आती हैं
दो बूँदे पलकों पर
और कहती हैं
" हम हैं ना "..!
आस
रोज़ आकर बैठता है
चिड़िया का एक जोड़ा
तुम्हारे लगाये जूही की बेल पर
शायद दरकार है उसे
एक अदद घोंसले के जगह की
मैंने बनवाकर टांगा है
घर की दीवार पर
लकड़ी का एक घरनुमा घोंसला
और रोज डालता हूँ
आँगन में दाना
मुझे आस है कि
तुम यहाँ जनम लोगी
और चिड़िया बन
फिर चहकोगी
अपने ही घर के आँगन में !
सुरमयी शामें
तुम थीं
तब
अक्सर अपनी शामें गुजरती थी
झील किनारे
टीले की
उस तयशुदा चट्टान पर बैठकर
सतरंगी बादलों के बीच
देखते हुए
डूबते सूरज को
और
हर लहर के साथ
बुनते हुए एक सपना
क्या अब भी होता होगा
वही नज़ारा
वही सूरज
वही लहरें
और वह चट्टान
क्या अब भी होगी वह
वैसी ही ?
----------पुरूषोत्तम सप्रे
प्रशांत कोठारी
(1)
तुम्हारी आँखे
कितना कुछ हैं इन बड़ी सी आँखों मे -
एक प्यास है
एक आस है
आशीष है
एक टीस है
कुछ गुमशुदा -अरमान हैं
पहचान है
उन्मान है
सम्मान है
आनंद है
एक वृंद है
विस्मय भी है
और सुज्ञ हो यह बोध है ।
एक खोज है
और ओज है
गहरी नदी
और उस नदी मे नाव है
एक गाँव है
एक अनमना सा भाव है
ये क्या यहाँ एक घाव है
बच्चा भी है
आहा! यहाँ लज्जा भी है
मुस्कान है
एक आन है
और है शरारत , बाँकपन
गांभीर्य है
और धैर्य है
जल्दी भी है
आराम भी
और फुरसतें है
काम भी
विद्रोह है
कोई टोह है
विश्वास है
कोई खास है
एक चाँद है
पूनम का,
और हाँ
एक वो आकाश है.
और
मैं हूँ ।
(2)
मैने
आज सुबह
अपने माता-पिता को
फिर गाँव की बस मे बैठाया है
दादा दादी अभी लौट आएंगे
कह कर रोती हुई बिटिया को समझाया है
और भारी मन से फिर
आफ़िस की ओर कदम बढ़ाया है.
सोच रहा हूँ ,
ये दो वक़्त की रोटी कमाने
हम क्यों अपनी जड़ों से दूर हो जाते हैं
ना खोज सकें खुद ही को
क्यों ऐसे खो जाते हैं ?
(3)
वो दरख्त
मेरे आंगन का
दादा की मानिंद
खड़ा बरसों से,
वैसे ही जैसे
दादा देखते रहते सबकुछ
ये भी तो कहाँ बोलता है।
जैसे दादा
साल मे एक बार देते
दस रूपये
निशब्द , हाथ फेरते सर पर
असंख्य असीस झराते
आँखों से ।
ये भी अपने मौसम में बिछाता है
रसीले बेरों की चादर
और फिर आशीष से झरा देता है
पत्ता पत्ता
बेनूर काँटों मे
खुद को बदल कर।.
फ़ासले
सूरज , यूँ तो
एक तारा है,
मगर वह,
उसका ताप,
जीवन संबल है;
उपयुक्त है,
उसकी ऊर्जा का परिमाण,
जीवन के चलते रहने के लिए,
धरती से उसकी जो
दूरी है,
वह
वस्तुतःजरूरी है.
वरना
पूछो उन ग्रहों से
जिनके वह निकट है कि
ताप का अर्थ
क्या है,
या जा पूछो उनसे
जो दूर् हैं उससे
कि उसकी उष्मा की
भूख क्या.
दूरियाँ और नज़दीकियाँ
मायने रखती हैं
आप में, आप के
जिंदा रहने के लिए...............
नरक चौदस और माँ
"नरक चौदस के दिन
स्नान
सूर्योदय से पहले हो
वरना
नरक लगता है"
ऐसा बतलाती है माँ
और इसीलिए खुद जल्दी उठ
हमें उठा
हल्दी उबटन लगा
और नहलाती है माँ
हमारे बाद बारी होती है
घर के आँगन के बुहारे झाड़े जाने की
क्यों कि गन्दा घर नरक-सम होता है
बरसों से समझाती है माँ
क्रमशः हमें, पिता को, घर को,आँगन को,
नरक से मुक्त कराने के प्रयास के चलते
उग आता है सूर्य
और सूर्य के आँगन की दीवार पर चढ़ जाने तक
बिना नहाये रह जाती है माँ.
यही सिलसिला जारी है
बरसों से बदस्तूर .........
--------------------प्रशांत कोठारी
भारती पंडित
क्या अब भी कहोगे ?
तुमने तो कह दिया हौले से
मिलते तो रहते हैं हम हमेशा
क्या याद रखना छोटी-छोटी बातों को
तुम न समझे हो न समझोगे कभी
कि तुम्हारे लिए जो है छोटा सा क्षण
वही से शुरू होती है मेरी पूर्णता
तुमसे मिलना, बैठकर बतियाना
या गहरे से झांकना तुम्हारी आँखों में
सुनते रहना तुम्हारी धीर-गंभीर बातों को
या महसूस करना
रोष से भरे तुम्हारे चेहरे से
टपकती धधकती ज्वाला को
सब कुछ बदलने के जज़्बे से
तुम्हारा वह उद्विग्न हो जाना
और उसी क्षण ले लेना मेरा
अपने हाथ में तुम्हारे हाथों को
हौले से सहलाना तुम्हारी हथेली को
अब सहा नहीं जाता यार कहते हुए
धीरे-धीरे नरम पड़ना तुम्हारे स्वर का
और बह जाना गुबार का कुछ आंसुओं में
बस इसी क्षण पूरी हो जाती हूँ मैं
उसी क्षण अपने केंद्र पर आ जाती हूँ मैं
अपूर्व सुख, संपूर्ण आनंद से भरी
क्या अब भी कहोगे छोटी सी बात है यह?
कैसी औरत है ?
उसकी बेइंतहा खुशी
हैरत का सबब है सबकी
इतनी यातनाओं के बाद भी
कैसे खुश रहती है वो
उसकी बेलौस हँसी
ईर्ष्या का सबब है सबकी
दर्द के बोझ तले दबकर भी
कैसे इतना हँसती है वो
उसकी जीजिविषा
नाराज़गी का सबब है सबकी
इतनी रुकावटों के बाद भी
कैसे मंज़िल तक बढ़ती है वो
हँसती औरत खिलखिलाती औरत
मंज़िल की ओर बढ़ती औरत
नहीं अटती समाज के खांचे में
जो न रोए न घिघियाए
भला कैसी औरत है वो ?
प्यार करते हो
अक्सर कहते हो तुम
कि प्यार करते हो तुम मुझसे
ऐसा-वैसा प्यार ही नहीं
बेइंतहा प्यार है तुम्हें मुझसे
बस एक छोटा सा सवाल मेरा
कि क्यों प्यार करते हो तुम मुझे
क्या इसलिए
कि मैं सजती-संवरती हूँ तुम्हारे लिए
साफ़-सुथरा रखती हूँ वह घर
जो तुम्हारा है सिर्फ तुम्हारा
ख्याल रखती हूँ
तुम्हारी ज़रूरतों का
दौड़ी चली आती हूँ
तुम्हारी एक आवाज़ पर
छोड़कर अपने सारे काम
या इसलिए
कि बेहतरी से संभालती हूँ
घर और बाहर को
रखती हूँ व्रत तुम्हारी
लंबी उम्र के लिए
न थकती हूँ, न उफ़ करती हूँ
घड़ी की सुइयों पर टिकी
बस भागती रहती हूँ
या शायद इसलिए
कि पूरी करती हूँ
तुम्हारी हर जायज़-नाजायज़ माँग को
चाहे मेरा मन हो या न हो
कभी ना नहीं कहती
पर क्या तब भी प्यार करते मुझे
यदि मै यह सब न करती
बलपूर्वक कहती अपनी बात
कि नापसंद है मुझे
अपनी इच्छा के खिलाफ़ जीना
लपेटना अपने आप को
एक खोल में ताकि
मेरा मैं विलीन हो जाए कहीं
क्या तब भी करते प्यार
जब मैं करती
बराबरी के अधिकार की माँग
इनकार करती शासित होने से
कहती कि अच्छा नहीं लगता
मुझे यूँ सजना-सँवरना
कहती कि व्रत-उपवास से
पित्त बढ़ जाता है मेरा
इनकार करती
अपनी इच्छा के खिलाफ
भोगे जाने से तुम्हारी शैया पर
बस एक बार सोचो
कि यदि मैं माँग करती
अपने आप को इंसान समझने की
क्या तब भी प्यार करते मुझे?
आखिर क्यों
क्यों कहती हो तुम अपने आप से
कि दिन भर की थकान में भी
एक संतुष्टि का अनुभव होता है मुझे
क्यों देती रहती हो
अपने आप को सांत्वना
कि ये मेरा घर है मेरे लोग हैं
इनके लिए सब कुछ करने में
सर्वस्व मिलता है मुझे
क्यों थपथपाती रहती हो
पीठ अपनी अपने ही हाथों
कि मैंने जीत लिए दोनों गढ़
क्यों मनाती हो झूठी खुशी
अपने स्त्री होने पर
एक बार तो कहो सबसे कि
मैं भी थकती हूँ
दिन भर खटते-खटते
मैं भी परेशान होती हूँ
घर-बाहर के मोर्चे संभालते
मुझे भी खीज होती है
लोगों की अनर्गल बातें सुनते-सुनते
मुझे भी गुस्सा आता है
अपनी अवहेलना देखते
एक बार तो कहो
मुझे भी चाहिए
कुछ पल सुकून के
मुझे भी चाहिए
छुट्टी वाला एक दिन
मुझे भी चाहिए
मन जैसा कुछ तो
चाहे स्त्री ही सही
इंसान तो फिर भी हूँ न मैं.
-------------------------------भारती पंडित
गुलाब
काश.! मैं होती गुलाब
और देखती कैसे, पवन
बिखेरती है खुशबु गुलशन में
और महका जाती है
मन का आँगन।
मैं होती गुलाब
और, समेटती अपने आँचल में
अलसुबह के ओस कणों को
पाकर उनका सुख स्पर्श
धन्य हो उठती।
मैं होती गुलाब
और झेलकर देखती
उन कष्टों को
जिन काँटों का होना
गुलाब की नियति है।
मैं, होती गुलाब
मुस्कुराती रहती हरदम
तग में उगे काँटों के साथ
चुभन अनुभव करते हुए
हर पल, हर क्षण सहती।
हाइकू
१.
सुखी जीवन
परिवार का स्नेह
अपनापन
२.
माता का प्यार
लाड और दुलार
अपरम्पार
३.
पिता का प्यार
आनंद है अपार
सपरिवार
४.
पावस ऋतु
मन को बहलाती
खुशियाँ देती
५.
परोपकार
जीवन का आधार
सुख संतोष
६.
आशा की ज्योति
नव दीप जलाती
जगमगाती
गीत
तुम मुस्कुराते रहे
फूल झरते रहे
दिल ने दिल से क्या कहा
पता ही न चला.
छंद रीते रहे
भाव जीते रहे
भावों से भरे दिल ने क्या कहा
पता ही न चला
सपने चलते रहे
गीत बनते रहे
सपनों ने दिल से क्या कहा
पता ही न चला
मन मचलते रहे
स्वप्न बनते रहे
ख़्वाबों ने दिल से क्या कहा
पता ही न चला |
- -------------भावना दामले
माधुरी खर्डेनवीस
मेरे आंगन में धूप
कभी आती है कभी जाती है
बस आँख मिचौली करती है
मेरे आंगन में धूप
अठखेलियाँ हर रोज़ करती है
छन के आती खिडकी से
पीली सुनहरी किरणों की डोर
उस रेशमी धागे से
फर्श पर कसीदा काढ़ती है
सूरज जैसे ऊन का गोला
दिनभर खुलता धीरे-धीरे
झट से सलाई ले
बैठकर गरम शाल बुनती है
बिखरे हुए ओस के मोती
चुन चुन कर भरती आँचल में
सांझ ढले आँचल झटक
बदली के पीछे छुपती है।
एक बच्चा मेरे भीतर
पलता है मेरे दिल में
एक छोटा-सा बच्चा
बडी हसरत से
झांकता हैं वह
और पूछता है बार-बार
बाहर आऊँ ?
क्योंकि तब मैं 'मैं' नहीं रहती
ओढे गँभीरता का मुखौटा
छुपा देती हूँ उसे
दिल के ही अंदर कहीं
बाहर आ लगा लेगा
वह भी कई मुखौटे
सीख लेगा कायदे दुनिया के
और मैं नहीं चाहती
दिखाना उसे फरेब की दुनिया
बनावट के रिश्ते,
मतलब की दोस्ती
कभी कभी
जब सोती है धरती
और जागते हैं सितारे
और होती हूँ जब मैं सिर्फ 'मैं'
वह बाहर आता है
हम खेलते हैं खूब
बातें करते हैं उलजलूल
फिर निकलते हैं सैर पर
चांद पर जाते हैं
बादल पर बैठकर
किलकारियाँ भरते हैं
जी भरकर हँसते हैं
बेकार की बातों पर
बनाते हैं शकले टेढ़ी मेढ़ी
करते हैं वह सब जो
यहां के कायदे में नहीं बैठता
और सुबह होते ही
मैं फिर उसे छुपा देती हूँ
दिल की गहराइयों में
और मैं भी लौट जाती हूँ
जहाँ मैं 'मैं' नहीं होती।
हायकू
पंछी रेला
सूरज सुनहरा
प्रभात बेला
चांदनी रात
चलें चांद के साथ
जो तू हो साथ
निखरी काया
मन उमंग छाया
बसंत आया
बस मैं औ'तू
सिहरन जरा सी
शरद ऋतु
लो वर्षा आई
घटा घनेरी छाई
तू याद आई
छोटी सी रातें
पसर गए दिन
गर्मी की बातें
झीनी सी रात
पतझड़ की बात
बिखरे पात
एक राह पर
साथ जीवन भर
हम सफर
खिल खिलाना
हँसना मुस्कुराना
बीता जमाना
तनहाइयाँ
तू और तेरी यादें
ये उदासियां
तेरा औ'मेरा
है मेल ये गहरा
अंबर धरा
-------------------- माधुरी खर्डेनवीस
माया जोगळेकर
बिखरे बिखरे सपने
मुंदी आँखों से देखे थे सपने
नींद से जगते ही सब टूट गए..
अंधियारे के वे थे मोती
भोर के होते ही सारे फूट गए..
साथ जिनके देखे थे सपने
वे साथी मेरे पीछे छूट गए..
छलावा ही था शायद साथ उनका
बिखरा के सपने खुशी वे लूट गए..
कोई तो बताए मनाऊँ उन्हे कैसे
अपना मुझे बनाके खुद हैं रूठ गए..
कई रंग सुकून के
उदास बच्चे को हँसा दीजीये,
दिल सुकून से भर जाएगा जनाब...
दूसरों की बुराई करके सुकून पाना अच्छा नहीं,
कभी अपने गिरेबां में भी झांकिये जनाब...
खिलती कलियों-फूलों को भी जरा दुलारिये,
सुकून का ये रंग भी प्यारा है जनाब.....
गहरे दुःख में साथ अपनो का मिल जाये,
सुकून से मन पल में भर जाता है जनाब...
कड़ी धूप में चलते हुए कोई पेड़ दिख जाए,
छाँव का मिलना सुकून ही है जनाब...
आँखों को मूंद हात जोड़ शांती से बैठिये,
सुकून- ए- जिंदगी समझ आ जाएगी जनाब...
आज का सच
आशीष दे रही सरस्वती देवी
तमसो मा ज्योतिर्गमय लिखा है
अशिक्षा का अंधियारा फिर भी
चारों ओर अभीतक फैला है...
मंदिरों में चढ़ रहे चढ़ावे
सोने चांदी का ढ़ेर लगा है
भूख से रोता बिलखता बच्चा
कटोरा लिए बाहर खडा है...
पैसा कमाने की होड़ लग रही
कानून किताबों में बंद पड़ा है
फॅशन की दुनियाआबाद हो रही
मन में अंधियारा भरा पड़ा है...
बच्चों से बचपन छिन रहा
तेजी से संस्कारों का पतन बढ़ा है
आभासी दुनिया में खो रहे सब
किस मोड पर समाज खड़ाहै?...
फिर भी मेरा मन कह रहा
रात के पीछे सवेरा खडा है
अंधियारे को जाना ही होगा
उजाला लिये सूरज खड़ा है...
मेरी सखी
बहुत प्यारी सखी है मेरी
होश सम्हाला है मैंने जबसे
कितना कुछ लिखती रही हूँ
उमड़ते विचार पूरे मनसे...
कुछ उदास दिख रही हो
पूछा कल मैंने कलम से
आज क्या अलग हुआ है
तुम्हारे साथ हूँ हमेशा से...
कागज और मैं यहाँ पड़े हैं
पर ध्यान कहाँ है तेरा
कितने दिनों के बाद बता
तुमने नाम लिया है मेरा...
कितनी संवेदनशील थी तुम
हर बात पर बहुत सोचती थी
आसपास की हर बुरी घटना
तुम्हे अंदरतक झकझोरती थी..
उठा लेती थीं मुझे हाथ में
शब्द जैसे बहते आते थे
रचना का सृजन होने तक
हम दोनो बैचेन रहते थे
अब तो जैसे तटस्थ हो गई हो
कोई बात रुलाती नही है
माना समय बुरा बहुत है
अलिप्त रहना भी ठीक नही है
चलो आरंभ करो लिखना
वर्ना मैं रूठ जाऊंगी
सृजनशील नहीं रही तो
मैं हड़ताल पर चली जाऊंगी...
घबरा के उठा लिया मैंने
दिल से वचन दिया है
प्रयास लिखने का करूँगी
ऐसा प्रण कर लिया है..
-------------- माया जोगळेकर
मीनल विंझे
रंग पंचमी
पंच तत्वों के रंगों से
रंगी है ये काया
इस कारण इस त्यौहार ने
रंगपंचमी नाम है पाया
किसी ने दोस्ती का रंग
अपने दिल पर लगाया
किसी पर ममत्व का
रंग है गहराया
किसी पर चढ़ा है रंग
अपने मीत के प्यार का
और कहीं कोई भक्त
प्रभु रंग में समाया
नयी आत्मा
न अश्कों के लिए कोई जगह अब इन नैनों में,
न रतजगों के लिए कोई जगह अब इन रैनो में
न अल्फ़ाज़ों के लिए कोई जगह अब इन मौनौं में,
न यादों के लिए कोई जगहअब दिल के इन कोनों में
न अपमानों के घूँट अब इन चाहों में,
न बेबसी की मंजिलें अब इन राहों में
अब नए काव्य का सृजन उन इंतेज़ारों में,
न कि काँटों की चुभन उन नज़ारों में
न अनचाहे सुर अब इन तानों में,
न कोई तन्हाई अब इन गानों में
पल पल की मौत नहीं अब इन जानों में,
नयी आत्मा जन्मी है अब इन प्राणों में.
-------------------------------------- मीनल विंझे
मृणालिनी घुले
१
इतनी क्यों दूरियां हैं
कोई तो दरमियां है ।
खामोश लब हैं मगर
नजरों से सब बयां है ।
क्योंकर न हों गर्दिशें
गाफिल जो पासबां है।
माजी में जो खो चुकी
मेरी ही दास्तां है ।
खोया है पास जिसने
अपना ही आसमां है ।
2
इक तेरा इशारा मिल जाए
इस दिल को सहारा मिल जाए।
रातें हों हमारी भी रोशन
गर एक सितारा मिल जाए ।
रुख बदला क्यों बतला देना
जब भी तू दुबारा मिल जाए ।
जो बादे मुआफिक आ जाए
कश्ती को किनारा मिल जाए ।
तारीकी फना हो जायेगी
कोई तो शरारा मिल जाए ।
३
नही मिलता तो क्या गम है
मिला है जो वो क्या कम है ।
कभी लब पर तबस्सुम है
कभी आंखें हुई नम हैं ।
मिले हो आज, कल का क्या
कहीं तुम हो कहीं हम हैं ।
जवाबी कैसे होंगे हम
सवालों में हमीं हम हैं ।
हसीं है तेरी दानाई
बयानों में कई खम हैं ।
-----------------------मृणालिनी घुले
(*दरमिया=बीच में,फना=पूरी तरह मिट जाना,ख़म=वक्रता, दानाई = समझदारी,बुध्दीमानी, तारीकी=अंधकार,शरारा=चिंगारी,पासबान=चौकीदार, पहरेदार, रक्षक.)
वाह !!
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