वसंत गोविंद नाखरे
(२३ डिसेंबर १९३०- ३ मार्च १९७३)
(कै. वसंत नाखरे यांची संपूर्ण माहिती आणि साहित्य हिन्दीत आहे. ते तसेच इथे देणार आहे.)
वसंत नाखरे का जन्म सागर म.प्र.में हुआ था.इंटर तक ही शिक्षा हुई थी कि एक दिन सांप्रदायिक दंगों को रोकने के प्रयास में पिता ने अपनी जान गँवाई, अतः परिस्थितीवश बैंक में नौकरी प्रारंभ की। बालाघाट में बृजबिहारी तिवारी, सुरेन्द्रनाथ खरे का सानिध्य मिला। मुंबई आने के बाद पं. नरेंद्र शर्मा का साथ मिला जिससे काव्य - लता पनप सकी। मुंबई राज्य द्वारा आयोजित १८५७ शताब्दी - समारोह के अवसर पर उनकी कविता"बंधन मुक्त करेगें माँ को" को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन १९७० में उनका कविता संग्रह "अपने मन की जग- जीवन की "प्रकाशित हुआ। पंडित नरेंद्र शर्मा कहते हैं कविता व्यक्तित्व को अधिक व्यापक बनाती है| इसमें संयम ,संतुलन और सामंजस्य पैदा करती है| प्रस्तुत संग्रह में कवि वसंत नाखरे की भावी प्रगति को स्पष्ट करने वाली समाजपरक और उदात्त आयामी व्यक्ति वाली रचनाऍं भी शामिल हैं | कवि अधूरे गीतों की पूर्ति के लिये प्यार मॉंगता है ,कवि का स्वर उत्तरोत्तर निखरता हुआ प्रतीत होता है| समाजपरक दृष्टि लोक- हित के लिये कटाक्ष भी करती प्रतीत होती है| नंददुलारे वाजपेयी ने कविता पुस्तक को पाण्डुलिपि में देखा था,उनके अनुसार सहज अनुभूतियों का प्रसार इसमें प्रमुख रुप से दिखाई पडता है|इस कविता पुस्तक में कोई आव्हान नहीं है परन्तु जीवन के वैषम्यों की प्रतिक्रिया इसमें यत्र तत्र व्याप्त है | इस काव्य रचना में जीवन की समतल धारा के दर्शन होते हैं,तथा रचनाओं में प्रवाह है | उनके अनुसार कवि हिन्दी भाषी प्रदेश में रहते हुए भी मूलतः हिन्दी भाषी नहीं है अतएव इस रचना का विशेष रूप से स्वागत किया जाना चाहिए |
कवि को देश प्रेम, अंधविश्वास और कर्मकांड के खिलाफ आवाज उठाना आदि संस्कार अपने दादा नारायण बालकृष्ण नाखरे से प्राप्त हुए | दादाजी ने दामोदर मावलंकर से प्रभावित होकर ब्रह्म विद्या के प्रसार -प्रचार के लिए सन् १८९२ में सागर बुंदेलखंड में पहला छापखाना "आलकाट प्रेस "के नाम से स्थापित किया| इतना ही नहीं रूढिवादी मराठी ब्राह्मण समाज का तीखा विरोध सहकर भी उन्होंने अपनी बाल विधवा बहन का पुनर्विवाह संपन्न कराया था। स्वभाव से भावुक किंतु विचारों से क्रांतिकारी कवि की कविता जब पूर्ण होती ,चाहे आधी रात हो अपनी दोनों छोटी बहनों को उठाकर कविता सुनाते| बहनें भी ऑंखें मलती गर्व का अनुभव कर कविता सुनती |आगे चल कर जब छोटी बहन का विवाह होने वाला था ,तब वर पक्ष की ओर से "समधी -भोज" का महाराष्ट्रीय परंपरा के अनुसार आमंत्रण आया| तब उन्होंने कहा कि आप यह भोज न दें क्योंकि हम विवाह के बाद भी उनके घर जाकर भोजन करेंगे |
कवि वसंत बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के साथ ही हँसमुख प्रकृती के थे। बैंक में नयी नौकरी लगी थी और गणेशोत्सव प्रारंभ हुआ तब नाटक ,कविता पाठ में उत्साह से भाग लेते थे। एक दिन बैंक में थकान के कारण बेहोश हो गये ,तब एक घंटा आराम करने के बाद पुनः उन्होंने काम किया और रात में फिर से कार्यक्रम में नाटक प्रस्तुत किया।कवि सदा ही अपनी माटी से जुड़े रहे तथा मदद के लिए हमेशा तत्पर रहते थे | मुंबई तबादला होने के बाद, जब कोई सागर से नौकरी हेतु साक्षात्कार देने आता, तब उसे अपने घर में ठहराते, मित्रों के साथ कपड़ों का इंतजाम करते , लाने - ले जाने की व्यवस्था करते थे |
अगस्त १९७१ में जब अजित वाडेकर के नेतृत्व में भारतीय क्रिकेट दल ने आंग्ल(इंग्लिश) दल को उसी की धरती पर शिकस्त देकर श्रृंखला पर जीत अपने नाम की,तब भारत वापस आने पर उनका भव्य स्वागत हुआ |उस समय भारतीय स्टेट बैंक के अध्यक्ष श्री आर.के. तलवार जो कवि वसंत से बहुत स्नेह रखते थे,उन्होंने अजित वाडेकर के साथ बैंक -जमा निधी (संचय) को आकर्षित करने के लिए भारत - भ्रमण पर भेजा | जब एक महिने बाद वे वापस आए,तब थकान के कारण बीमार पड़ गये । चिकित्सक.ने कुछ जाँच करने के बाद कर्क रोग का निदान किया | उनका इलाज शुरू हुआ, उस समय उनकी छोटी बहन शादी के १५ वर्ष बाद एम.ए. की परीक्षा दे रही थी,तब उन्होंने कहा कि जब ऐसा लगे कि मैं जीवित नहीं रहूंगा तभी उसे बुलाना ,अतः पहले उन्हें खबर नहीं दी गई लेकिन हालात विकट थे |बहन सुदूर बस्तर जिले में थी, सबसे आखिर में मुंबई आयी और बहन से मिलने के दूसरे ही दिन उनका ४३ वर्ष की आयु में(३ मार्च १९७३) असमय देहांत हो गया | कवि अपने जीवन की सीमित अवधी में अपनी कविताओं से लोगों के मन में बस गया।
१. जब कभी देखता हूँ
जब कभी देखता हूँ
मेहनतकश किसान के
श्रम के पसीने से सींचे हुए
दूर तक फैले इन
हरे भरे खेतों में
हवा के झोकों पर
बलखाती बालियाँ
बांधे हैं जिनपर ही
भोलेभाले किसान ने
आने वाले कल के
सुनहले सपने सब
एक प्रश्न उठता तब
आजकल बांधे हुए
कई बांधों की तरह
यह बांध भी ढह तो न जाएगा
बनिये का ब्याज
तकाबी की किस्त
और धर्म के नाम
कुछ देने के बाद
उस झोपड़ी में इसका
कितना कुछ जावेगा
वो आने वाले कल के
सुनहले सपने सब
क्या कभी सच होगें?
२. योजना का ब्याह
देश की योजना सज रही सँवर रही
दुल्हन के द्वार पर शहनाई बज रही
दुल्हन के मन की अभी
कुँवारी सभी आशायें |
सपनों का "रामराज्य "
दूल्हा बन आयेगा
मदमाती बहारों को
साथ में लायेगा
प्यार के गीतों को
मस्ती से गायेगा
कण कण में नवजीवन
नवयौवन छायेगा |
मगर कल की किसे फिक्र
यहाँ आज तो आज है
दुल्हन के अंग अंग
सज रहा साज है
जो दूर थे सपनों से
पराये भी अपने अब
नाते और रिश्ते के
सगे सभी सम्बंधी
स्वार्थ की राह चल
आये सभी दूर से
ब्याह की गड़बड़
धूमधाम चहल - पहल
मैं -मैं और तू -तू का
बाजार भी गर्म है
मौसम भी खराब यह
बहुत ही सर्द है
तुमको कुछ दर्द है
आज का नवीन युग
कहता है देख लो
इस में जो ताप ले
वही तो मर्द है
चमक दमक सोने की
भाखरा भिलाई से
कितने ही गहनें यहाँ
बन रहे गढ़ रहे
कुछ दुल्हन की सजावट को
कुछ ऊपर की दिखावट को
ये कितने ही रिश्तेदार
जतलाने अपना प्यार
आये जो ब्याह में
कल तक जो गरीब थे
दीन मुहताज थे
ब्याह की गड़बडी़
आज वो अमीर हैं
बन गये मीर हैं
कुछ लोग कहते हैं
इसको तकदीर है
कुछ एक कहते हैं
यही तो मौका है
लेकिन मैं कहता हूँ
यह बहुत बडा धोखा है
विदेशी कर्ज पर
यह ब्याह की धूमधाम
और ये बाराती जो
खोये हैं अपनों में
अपने ही सपनों में
जाने कब टूटेगा
अपनों का सपना यह
दुल्हन का सच्चा अब
शृंगार सब कब होगा
जाने कब सपनों का
"रामराज्य "दूल्हा बन
सजधज कर दुल्हन
के द्वार पर आयेगा?
३. बन्धन मुक्त करेंगे माँ को
बन्धन मुक्त करेंगे माँ को
धधक उठी अन्तर की ज्वाला|
वह पहला स्वातंत्र्य युद्ध था
नही गदर सत्तावन वाला ||
करने कुछ व्यापार यहाँ पर
धीरे धीरे पैर जमाये|
और राज्य विस्तार बढाने
नये फूट के बीज उगाये ||
हड़प नीति की ऐसी चालें
हर दम चलता रहा दुरंगी |
धीरे धीरे राज्य मिट चले
जमा चला अधिकार फिरंगी||
बनकर काल देश पर छाया
था गोरा पर मन का काला |
वह पहला स्वातंत्र्य युद्ध था
नहीं गदर सत्तावन वाला ||
लेकर अपना स्वार्थ सभी तब
दो बिल्ली से लड़ते रहते -
बनकर बंदर ,तभी फिरंगी
वह निपटारा करते रहते ||
अजब सहायक संधि चलाई
और चली कितनी ही चालें
ऐसे में ही उसने चाहा-
झांसी पर अधिकार जमा लें||
झांसी की रानी ने तब ही
लिया रूप रणचंडी वाला |
वह पहला स्वातंत्र्य युद्ध था
नहीं गदर सत्तावन वाला ||
माँ की ममता में रंग ड़ाला
तब कितनों ने अपना चोला |
लिख देंगे इतिहास खून से
वह बिठूर का नाना बोला ||
यहाँ विदेशी टिक न सकेंगे
कर न सकेंगे अब मनमानें|
माँ की चीखें सुन सकते हैं
कब आजादी के दीवाने ||
बोल उठा था तब घर घर में
रोटी का हर एक निवाला |
वह पहला स्वातंत्र्य युद्ध था
नहीं गदर सत्तावन वाला ||
कुंवर- तात्या- मंगल- मैना
और अजीम की अमर कहानी|
कंठ कंठ में बोल रही है -
शाह बहादुर की कुर्बानी ||
युगों युगों तक अमर रहेगा
यह पावन बलिदान तुम्हारा|
स्वर्ण अक्षरों से अंकित है
त्याग भरा इतिहास सुनहरा ||
जगा दिया था जनजीवन में
स्वर आजादी का मतवाला |
वह पहला स्वातंत्र्य युद्ध था
नहीं गदर सत्तावन वाला||
(मुंबई राज्य द्वारा आयोजित १८५७ शताब्दी समारोह के अवसर पर पुरस्कृत रचना)
४. मानवधर्म
तारे सबके, चन्दा सबका,
सबका आसमान है |
फिर क्यों धरती बॅंटी हुई है,
मानव सभी समान है ||
अरे बनाई बोलो किसने ,
देश- देश की सीमाऍं ?
पानी किसका ,पर्वत किसके
किसने बाँटी सरितायें ?
प्राण एक है, वेश अलग हैं,
किसका चीन जापान है |
तोड़ चलो अब ये दीवारें,
मानव सभी समान हैं||
पावस पतझर अलग नहीं है,
अलग नहीं मधुमास है |
मान लिया जो युगों - युगों से,
मन का केवल भास है |
कहीं तिरंगा, कहीं दुरंगा ,
कैसे सभी निशान हैं |
तोड़ चलो अब ये दीवारें ,
मानव सभी समान हैं||
मुसलमान की यह कुरान तो,
हिन्दू की यह रामायण |
समझ नहीं पाये खुद को ही,
व्यर्थ हुए सब पारायण||
मंदिर, मस्जिद ,गिरजा किसके,
किसका धर्म महान है |
तोड़ चलो अब ये दीवारें,
मानव सभी समान हैं ||
राम कहाँ है , श्याम कहाँ है,
और कहाँ है पैगम्बर |
छू पाया है किसने अब तक,
बोलो यह नीला अम्बर ||
किसके ईसा, किसके मूसा,
सब ही तो इन्सान हैं |
सब धर्मों में देखा अब तक,
मानव - धर्म महान है ||
५. मौन तुम्हारा प्रिय मुस्काना
मौन तुम्हारा प्रिय मुस्काना।
तुम चाहे जो इसको समझो,
मुझे बना है एक अफसाना।।
उर में मेरे भाव जगाकर
प्यार भरा ,भर दी अभिलाषा।
तुमने ही तो मुझे सिखाया,
पढ़ना नयनों की यह भाषा।।
गीत प्यार का जो था गाया
बना मुझे है वही तराना।
मौन तुम्हारा प्रिय मुस्काना।।
नित ही सपनों में प्रिय आकर
मौन सन्देशे दे जाते हो।
जीवन का यह तिमिर मिटाकर,
नव प्रभात तुम भर जाते हो।।
मन ही मन फिर सोचा करता।
सपनों को साकार बनाना
मौन तुम्हारा प्रिय मुस्काना।।
६. हर दिन देखा
हर दिन देखा चढ़ता सूरज,
और ढलती सांझ भी |
अरे क्षितिज पर आकर झुकता,
ये ऊँचा आकाश भी ||
विकट अरे यह काल -चक्र तो,
चलता रहता है प्रति पल |
टिके रहेंगे बोलो कब तक,
ऊँचे - ऊँचे बने महल ||
मिट्टी में मिलते देखे हैं ,
वो दीवाने खास भी |
हर दिन देखा चढ़ता सूरज,
जिनकी चलती तलवारों में ,
भरा हुआ था कितना बल |
आज गाँव की चौपालों में ,
रहे गये वो "आल्हा उदल " ||
बोल रहा है युगों - युगों से,
आज एक इतिहास भी |
हर दिन देखा चढ़ता सूरज ,
और ढलती साँझ भी ||
मिट्टी का तन मिट्टी में ही ,
कभी एक दिन मिलना है|
मैं - मैं और यह मेरा - मेरा,
अरे एक यह छलना है ||
लेकिन मानव -मुख से फिर भी,
नहीं निकलता काश भी |
हर दिन देखा चढ़ता सूरज ,
और ढलती साँझ भी ||
माया मदिरा की मस्ती में,
दुनियाँ मतवाली बनती |
अपना अपना है इक सपना,
इन साँसो की क्या गिनती ||
बांध नहीं पाये प्राणों को ,
ये साँसो के पाश भी |
हर दिन न देखा चढ़ता सूरज
और कि ढलती साँझ भी||
७. ओ राही
राहत मिलती है मन को गाने से ओ राही,
इसलिये मीत मैं गीत हमेशा गाता हूँ |
मैं भूल न जाऊँ जग के झूठे वैभव में ,
इसलिये तार अन्तर के छेड़ा करता हूँ ||
मत समझो केवल शब्दोंका यह खेल अरे ,
मन के कितने ही भाव मधुर अनमोल भरे|
मन की चाहें मैं पास तुम्हारे ले आता ,
उलझन की राहों पर चाहें सब बिखर गयीं||
बिखरी चाहें सपनों में मिलती मन चाहीं ,
इसलिये स्वप्न को सदा साथ सुलाता रहता हूँ ||
कलियों ने सिखलाया है मुझको अब तक ,
काँटों में रहकर भी हरदम , हंसते रहना |
लेकिन पीड़ा का भार बहुत बोझिल मन पर ,
मैं थक ना जाऊँ कहीं राह में ही आकर ||
दुख में डूबा मन हलका तो हो जाता है
इसलिये नयन से नीर बहाता रहता हूँ |
सन्ध्या को ढलता सूर्य प्रातः को मुस्काता ,
मैं चलता हूँ - तूफान साथ मेरे आता |
डरकर लंगर से नाव बंधी रहने दूँ क्यों ?
कभी किनारा चल कर पास नहीं आता ||
लहरों में लहराना ही तो जीवन है ,
इसलिये नाव लहरों में खेता रहता हूँ ||
भले किनारा दूर रहे मुझसे इतना
छलने को तूफान छलेगा अब कितना |
मिटने का आनंद शमा क्या कह सकती ,
लेकिन पूछेगा कौन पतंगे से जाकर||
इस दुनिया के भी पार दूसरी दुनिया है ,
इसलिये क्षितिज के पार कभी चल देता हूँ||
८. अन्तर में है ज्वार निरंतर
अन्तर में है ज्वार निरंतर
और बरसती हरदम आँखें
छायी रहती हैं जीवन में
हर पल दुःख की काली बदली
फटे चीथड़ों में तन लिपटा
मगर काल भी इस से डरता
कोई कहता इसे भिखारीन
कोई कहता इसको पगली|
सदा निराशा पास खडी़ है
बहुत करूण है इसकी गाथा
सुख ने मानो जीवन से ही
तोड लिया हो अपना नाता
पथ पर कब से पड़ी हुई यह
साथ लिये बोझिल-सा जीवन
हर पल साँसों को गिनती ये
तन पर की हर हड्डी गिन लो
और किसी चेहरे पर दो गड्ढे
चाहे उनको आँखें कह लो
लिये हाथ में खाली डिब्बा
लाख दुवायें लुटा -लुटा कर
हर जाने वाले राही से
माँग रही खाने को केवल
दो रोटी के सूखे टुकड़े
मगर नहीं कोई भी सुनता
अपने ही स्वर और ताल पर
मदमाती -सी मस्त चाल पर
हर जाने वाले राही ने
माथे पर थोडी सिकुड़न ला
फिर से अपनी राह पकड़ ली
ओ मस्ती में चलने वाले
सुख वैभव में पलने वाले
कष्ट तुम्हें तो होगा लेकिन
एक नजर इसको भी देखो
और जरा सोचो तो समझो
चाहो तो कुछ थोड़ा कह लो
उचित समझ कर अगर चाह हो
तो थोड़ा दुःख-दर्द बाँट लो
भेदभाव के बंधन तजकर
और मनुज को मनुज समझ कर
अन्तर की ममता को लेकर
बरसा दो आशा की बदली |
९. किस तरह भूलूँ
किस तरह भूलूँ तुम्हारे प्यार को
मीत तुम ऐसे हृदय पर छा गये||
जब निशा की कालिमा में मग्न हो ,
बेखबर होकर यहाँ सब सो रहे,
देखता तब नित्य तुम आलोक को
स्वर्ण थाली में सजाकर ला रहे
भूल से भी रहा जो भटका कहीं
प्राण तुम देने सहारा आ गये ||
नित्य अलियों की मचलती टोलियाँ
कौन जाने अब कहाँ को चल पडी,
बाग की कलियाँ सभी अब सूखती
मौन गलियों में उदासी भर चलीं
इस तरह जो भी चमन उजड़ा जहाँ ,
तुम मधुर मधुमास बनकर आ गये ||
नील नभ के ऑंसुओं ने बरसकर
नम कर दिया ऑंचल धरा का जब यहाँ
सह सकी बिजली न इसको एक पल,
प्यार का ऐसा जहाँ देखा समा
जब मचलकर कड़कती थीं बिजलियाँ
तुम इन्द्रधनुषी रंग लेकर आ गये ||
रूप का देकर भुलावा छल लिया
तब कहाँ इसमें न कोई अर्थ है
और उधों ने सन्देसा यह दिया
रूप की पूजा अरे सब व्यर्थ है
किन्तु मधुबन आज तक है गूँजता
गीत तुम ऐसे स्वरों में गा गये||
बन गयी कैसी कठिन थी भूमिका ,
धर्म की थी जब परीक्षा युद्ध पर
सत्य के आगे टिकेगा क्या कोई?
या गिरेगा यह गगन ही टूटकर
सत्य का रथ रुक ना जाये मोह से
तुम स्वयं तब सारथी बन आ गये||
१०. वो आँधी से आये
वो आँधी से आये
औ तूफ़ां से चले गये
उनके स्वागत में
भोली -भाली जनता ने
कितनें तोरण बन्दनवार
द्वार सभी सजवाये
ऊँचे -ऊँचे मंच
सदा बनवाये
जिन पर भारी-भारी गद्दे
शुभ्र चादरें बिछवायी
माइक लगवाये
बिजली भी जलवायी
कोमल स्वर से गाया गया
वंदे मातरम्
कोमल फूलों में गुंथा हुआ हार
गले से पहनाया
करतल ध्वनि
फिर कुछ मानपत्र भेट हुए
तब मंत्री का मीठा मीठा -सा
आग्रह -भाषण शुरू हुआ
भाषण में कुछ रटी रटाई - सी
भाषा, कुछ देश विदेश की
कुछ धर्म कर्म की बातें
बापू और विनोबा का
फिर नाम लिया साधा जीवन
उच्च विचारों को अपनाओ
राष्ट्र के नव निर्माण में
अपना हाथ बँटाओ
श्रमदान करो
धनदान करो
सभी कुछ बतलाया
फिर बड़ी - बड़ी
कुछ नई - नई योजनाओं
की आशा
लम्बे -लम्बे वादें
बडे़ - बडे़ आदर्शों को बता - जता
त्याग और ममता का
करुणा और समता का…
पाठ ऊँचे -ऊँचे मंचों से
नीचे बैठी भोली -भाली
जनता को सिखलाकर चले गये
जो कुछ गहरी बातें वे समझ
नहीं पाये खुद ही
वे भी सबको समझाकर चले गये
वो ऑंधी से आये
औ तूफ़ां से चले गये।
संकलन : सारिका भवाळकर