अर्चना वैद्य करंदीकर, अलकनन्दा साने, अल्का शिधये फणसे,आभा निवसरकर,अंतरा किल्लेदार
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अर्चना वैद्य करंदीकर
गौरैया और मेरे बच्चे
खुशनसीब हूं मैं,
कि बच्चों को दे पाई ऐसा घर
जहां खिड़कियों/ दरवाजों के पीछे चिड़िया
घोसले बनाती है
अंडे देती है आज भी
किस्सों में नहीं
हकीकत में देख पाते हैं मेरे बच्चे
घोंसलों में दिये अंडे,
अंडे से निकलते चूजे
उन्हें चुग्गा चुगाते
उड़ना सिखाते चिड़ा चिड़ी
खुशनसीब हैं मेरे बच्चे
कि उनके मां- बाप बड़े पैकेज की
नौकरी वाले सीमेंट के जंगलों की बजाय,
रहते हैं उस जगह
जहाँ वे देख पाते हैं
पिछवाड़े के आंगन में नाचता मोर
खरीद कर ही नहीं
चुनकर भी खा पाते हैं
कच्ची अमिया,अमरूद,जामुन,खजूर और खिरनी
खुशनसीब है हम
कि शेष दुनिया के लिए सपनों जैसी
उस जगह रहते हैं,
जहां इंसानियत की कीमत
आज भी पैसों से ज्यादा ही है !
याद
मैंने सुनी थी विरह की बातें
मगर, कोयल तो कूकती है,
पंछी भी चहकते हैं,
फूल भी खिलते हैं,
कोई नहीं जान पाता,
तुम्हारे ना होने का अंतर,
मेरे सिवा
याद तुम्हारी आती है,
तो लगता है--
मेरी किताब
जैसे तुम्हारा चेहरा है,
शब्द चेहरे की भाव भंगिमाएं
और वाक्य तुम्हारी मुस्कान-से लगते हैं मुझे !
वैसे एक अंतर तो है
तुममें और किताब में,
तुम्हें पढ़ना आसान है,
मगर तुम्हारी याद के साथ
किताब पढ़ना,
बहुत बहुत मुश्किल!!
गृहस्थी
कल लिखते लिखते
मैं सोच रही थी,
हजारों महत्वाकांक्षी सड़कें,
क्यों खत्म हो जाती हैं
रसोई घर पर जाकर ?
लाखों स्वप्न बीज,
हो जाते हैं आटे दाल चावल के डिब्बों में बंद, न जाने कैसे??
करोड़ों अरमान दिल के,
हो जाते हैं बच्चों के पलनों
पर निछावर किस तरह???
मैं सोच रही थी कल,
कविता की डायरी में,
किराने का हिसाब लिखते लिखते!!
----------------------------- अर्चना वैद्य करंदीकर
अलकनन्दा साने
मेरे प्रेम में
मेरे प्रेम में गुलमोहर की छाँव नहीं थी
मेरे प्रेम में गुलाब की पंखुड़ियां नहीं थी
केवड़े की खुशबू नहीं थी
तितली के रंग नहीं थे
सावन की फुहारें नहीं थी
खग की ऊँची उड़ान नहीं थी
चिड़िया का फुदकना नहीं था
मोर का नृत्य नहीं था
हरा नहीं, पीला था मेरा प्रेम
पर आम जैसा रसीला नहीं था
फिर भी मैंने प्रेम किया
मैं वही कर सकती थी
जो मेरे वश में था
और मैंने प्रेम किया !!!
वर्धमान से महावीर
सोचती हूँ
किसी दिन निकल जाऊं
घर छोड़कर
बहुत हुआ भटकना
मन के बियाबान में
अब शरीर को दिखाऊं
असली वाला जंगल
और पता करूँ
कैसे होता है, बिना छत के रहना
सोचती हूँ
किसी दिन कुछ भी न पकाऊं
सो जाऊं ऐसे ही
घुटने पेट के पास मोड़कर
महसूस करूँ भूख को
जिसे बहुत पढ़ा है
अख़बारों में, किताबों में,कहानियों में
सोचती तो यह भी हूँ
कि जब भी निकलूं घर से
निर्वसन ही रहूँ
धूप में जलूं,बारिश में भीगू,ठण्ड में कांपू
बहुत बखान सुना है
रोटी,कपड़ा और मकान का
जानती हूँ
भूखी तो रह लूंगी कुछ दिन
और बिना छत के भी
पर निर्वस्त्र होना आसान नहीं है
बहुत मुश्किल होता है
वर्धमान से महावीर होते जाना !
कि तुम आदमी हो !
मैं चींटी से डरती हूँ, कहीं काट न ले
मैं तिलचट्टे से डरती हूँ, कहीं घर पर कब्ज़ा न कर ले
मैं छिपकली से डरती हूँ कहीं ...
मैं चूहे से डरती हूँ ...
मैं बिल्ली से डरती हूँ ...
मैं कुत्ते से,सूअर से
केंचुए से, सांप से
सबसे डरती हूँ
मैं सबसे ज्यादा तुमसे डरती हूँ
पता चला है कि तुम आदमी हो
और भी बहुत कुछ सुना है तुम्हारे बारे में !!
संदेह का लाभ
यूँ तो अपराधी कई थे,
पर हमेशा और बड़ी तादाद में
चींटियाँ ही मारी गईं
वे रात के अँधेरे में चुपचाप
करते थे हमला
चींटियाँ घूमती थी
दिन के उजाले में
झुण्ड की झुण्ड बेख़ौफ़
अपराध करते हुए देखी गईं चींटियाँ
और सजा उन्हें ही मिली
बाकी निर्दोष छूट गए
संदेह का लाभ लेकर....!!!
--------------------------------अलकनन्दा साने
अल्का शिधये फणसे
ख्वाहिशों की पगडंडी से चल कर
सपनों के तालाब तक
सुबह की सच्चाई से छुपकर
उनिंदी आँखों के ख्वाब तक
तेरा अहसास चांदनी बन खिड़की से
मेरे तकिये तक उतर आया
मैं सोचती रही तुझको, मेरा मन
तेरी मुंडेर से उतर, तेरे आंगन में झांक कर
तेरी गलियों से गुजर आया
तुझे जीता देख सुकू़न से, मेरा मन मेरे पास
मुस्कुराता लौट आया.
सवाल
बर्फ भी कभी बैचेन होकर पिघलती होगी क्या?
हवा भी कभी अपना दिल बहलाने टहलती होगी क्या?
आजकल सियासत रिश्तों की भी चलती है हजू़र
कोई शीरी फ़रहाद पे अब मरती होगी क्या?
हर कोई साहिल को धकेले जाता है समंदर में
लहर साहिल से टकराने को अब मचलती होगी क्या?
कितने बेबस सूलियों पे लटक जाते हैं
कोई मरियम उनके लिए अब तड़पती होगी क्या?
रंग लहू के बिखरते ही रहते हैं जमीं पर
शाम सुरमई रंग में अब ढलती होगी क्या?
इंसा फितरत बदलता है लिबासों की तरहा
कहीं रुह भी अब लिबास बदलती होगी क्या?
मजहब अब रंगों पे भी फसाद करते हैं
दीन-ए-इलाही सी कोई रिवायत अब चलती होगी क्या?
ज़ज्बा
जिसने काली रातों में भी अपना नूर ढूंढ लिया
अपने दाग में भी अपना गुरूर ढूंढ लिया
मैनें उस चाँद से भी पागल किसी और को देखा है
जिसने खुशबू बनकर जिंदगी का सफर ढूंढ लिया
जिसने खुद मिटकर अपनी पाकीज़गी का मंजर ढूंढ लिया
उस संदल से भी पागल किसी और को देखा है
जिसने खुद बोझिल होकर प्यासे की खातिर समंदर ढूंढ लिया
जिसने बिखराने को हरियाली का मंजर ढूंढ लिया
उस बादल से भी पागल किसी और को देखा है
जिसने मोती अपने अंदर ढूंढ लिया
जिसने गहराई छुपाने का हुनर ढूंढ लिया
उस समंदर से भी पागल किसी और को देखा है
जिसने आसमां छूने का तरीका ढूंढ़ लिया
जिसने खुद कटकर रास्ता देने का सलीका ढूंढ़ लिया
उस पर्बत से भी पागल किसी और को देखा है
वो मेरा जुनून था जिसने जीने का जज्बा
दिल के अन्दर ढूंढ लिया.
----------------------------------अल्का शिधये फणसे
आभा निवसरकर
१.
कभी भर चुके घावों पर लगे टांके खिंचने का दर्द
कभी खदबदाती हंसी,
हरपररेवड़ी और कवीट की खटास
गिट्टी पर हाथों से बनाया पान
गणित के कम नंबर
कभी पेड़ पर रात को बैठने वाली चुड़ैल का डर
पापा को लिखी पहली चिट्ठी
मां के बचपन की तस्वीर
नानी की कटी फटी जनमपत्री
मौसम के भेंट चढ़ी कुछ जिल्दें...
एक एक करके थैलियां खुलती हैं
यादें खनकती हुए गिरती हैं
पसरती हैं, सिमटती हैं
संवारी जाती हैं
घर खाली करते करते.
घर खाली करते करते
मन भर जाता है
कमरा बह निकलता है
यादें मिल जाती हैं
मकान को घर बनाने के लिए
२.
मैंने लिखना चाहा
पतझड़, वसंत,
बादल, सूरज
प्यार, मुहब्बत,
देह वेह
बाजार वाजार
खनखन छनछन
लेकिन लिखा गया
कांटे, पत्थर,
ईंट, गारा
घर्र घर्र
चेतकीरा ग गीहदगै तचर
मैं लिखना चाहती हूं
घर, छत, घरौंदा, चिड़िया
लेकिन लिखती हूं
दीवारें,
तूफान,
चील
डदीगी लनममलनव
(चाहने और होने के बीच की दूरी कभी खत्म नहीं होती)
३.
हर पतझड़
सूरज पूछता है पत्तियों से
उधार रखोगे मेरी धूप...
मेरे रंग...
सर्दी भर...
बादलों की रजाई ओढ़ कर सोना चाहता हूं
कुछ पल... कहता है सूरज
दिन से कुछ घंटे चुरा कर
सूरज आराम करता है सर्दी भर.
पत्ते
गुलाबी, पीली लाल, रोशनी को अपने में लिए
मिट्टी में खो जाते हैं, एक एक करके
मानो जा रहे हों सूरज की ओर
पत्ता पत्ता रोशनी लौटाने
अगले वसंत के लिए
४.
उसने इकट्ठा कर रखे हैं
पेंच
जैसे कि किसी अंधेरे कोने में मैं दिखाई देती हूं
वो जताता है कि कितना हितैषी है
कितना ख्याल रखता है
और कि दुनिया कितनी जालिम है
कि उसके अलावा मेरा धर्म, जात, इज्जत कोई नहीं बचा सकता
धीरे धीरे कसने लगता है
वो कुछ पेंच
रोशनी की गैरमौजूदगी में
मैं जानती थी कि वो हमेशा से सिर्फ खेलना ही जानता है
फिर भी मैं बनती हूं बार बार उठाने पर आंखे खोलने
और सुलाने पर आंखे बंद करने वाली गुड़िया.
वो खेलता है
मुझे बना कर गुड़िया
मैं भी तो बन ही जाती हूं गुड़िया
सब जानते बूझते हुए भी.
५.
कैमरे से निकली
कुछ यादों की तस्वीरें
तुम्हारी जेब में पड़ी भीग गई हैं
लाओ उन्हें सूरज दिखा दूं
कि मेरे दिन में उजाला हो...
------------------------------आभा निवसरकर
अंतरा किल्लेदार
१.
उस अंत की तलाश में,
किसी मोड़ पर,
सुरों की नगरी में,
शब्दों के खेल में...
हाँ वहीं मिलूँगी मैं!
उस अंत की तलाश में,
मोहमुक्त मायाजाल पर,
खा़मोशी के बाज़ार में,
विचारों की प्रचुरता में...
हाँ वहीं मिलूँगी मैं!
उस अंत की तलाश में,
कई दिलों की ज़ुबाँ पर,
भावनाओं के उद्गम में,
यादों की वादियों में...
हाँ वहीं मिलूँगी मैं!
२.
वो शाम, वो संधिकाल,
जब आसमान की गलियों से गुज़रती हुई,
सूरज की लाली,
मिलती है अंगड़ाई लेती हुई चाँदनी से।
शायद ऐसे ही किसी समय पर हम मिले थे।
उस धूप ने भी शर्माते हुए,
पर्दा कर लिया था धीरे-से।
और सितारों की बारात,
तो जैसे तैयार थी,
अपने भव्य रूप को सजाने के लिए।
शायद ऐसे ही किसी समय पर हम मिले थे।
गोधूली अपनी ख़ुशबू लिए,
बिखर रही थी हवाओं में।
कहीं उन्हीं लहरों में,
मधुर बाँसरी तान सुनाई दे रही थी।
सौंधी-सी सरसराहट थी बदन में,
कोई अनजानी-सी महक थी विचारों में,
शायद ऐसे ही किसी समय पर हम मिले थे...
-------------------------------अंतरा किल्लेदार
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