भारती पंडित,दीपक नाईक, दीपक कर्पे,नयना(आरती)कानिटकर, निशिकांत कोचकर,मीनल विद्वांस,रश्मि प्रणय वागळे,वसुधा गाडगिळ
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भारती पंडित
कुत्ते और भेड़िया
भौं...भौं...भौं...भौं...उस अंधेरे पथरीले रास्ते पर आवारा कुत्तों की आवाज़ें सन्नाटे को चीर रही थी| शाम ढले ज्यादा देर न हुई थी मगर सर्दियों के दिन होने से आसमान से ओस गिर रही थी, बर्फीली हवा के झोंकों के चलते सड़क पर आवाजाही ना के बराबर थी।
हट, हट, दूर हट...मैं मार दूँगी पत्थर, चल भाग...आठ साल की वह लड़की अपने ऊपर झपट रहे कुत्तों को ललकारती हुई चीखती जा रही थी| वह मुड़-मुड़कर पीछे देखती जाती, हाथ में पत्थर होने का अभिनय करती और फिर आगे भागती जाती| साथ-साथ बगल में दबी थैली को भी टटोलती जाती|
अचानक लड़की को ठोकर लगी और वह धडाम - से सड़क पर गिर पड़ी| कुत्तों को जैसे मौका मिल गया, खुशी भरी चीत्कार करते हुए वे उसकी ओर दौड़ पड़े थे| आने वाली परिस्थिति की भयावहता को भांपकर वह गला फाड़कर चीख पड़ी थी, बचाओ, बचाओ, ये कुत्ते मुझे खा जाएँगे...उसकी चीख उस वीरान गली में गूँज उठी थी|
कुत्ते लगभग उस पर झपटने ही वाले थे कि अचानक किसी वाहन की तेज़ रोशनी उन पर पड़ी और वे चौंधियाते हुए वहीं ठिठक गए| एक-दो ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो एक पत्थर तेज़ी से उन्हें आ लगा| खतरे को सूंघकर बाकी कुत्ते भी हल्की आवाज़ में गुर्राते हुए यहाँ-वहाँ हो लिए| एक हाथ ने सड़क पर गिरी हुई लड़की को उठाया और सड़क के किनारे खड़ा कर दिया|
अकेले कहाँ जा रही थी इतनी रात गए तुम? उस भारी आवाज़ ने पूछा|
बाबा की दवा खत्म हो गई थी, माँ ने दवा लाने को भेजा था| वह बगल की थैली को टटोलते हुए थरथराती आवाज़ में बोली|
ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ...
वह खुशी-खुशी मोटरसाइकिल पर सवार हो गई थी|
अंकल, मेरे घर का रास्ता यहाँ से है...मोटरसाइकिल को दूसरी दिशा में मुड़ते देख वह बोली|
हाँ, बस ज़रा सा काम है यहाँ, फिर चलते हैं घर...
मोटरसाइकिल एक अँधेरे कमरे के पास जाकर रुकी|
आ जाओ अंदर...
उसके न चाहते हुए भी उसे अंदर घसीटा जाने लगा था| वह उसकी मंशा समझ गई थी, कुत्ते तो चले गए थे मगर भेड़िया उसकी चीर-फाड़ के लिए प्रकट हो गया था| उसने उसकी कलाई पर पूरी ताकत से अपने दांत गड़ा दिए और दरवाज़ा उसके मुँह पर भेड़ते हुए वहाँ से बेतहाशा भाग निकली थी| उसे अहसास हो गया था कि कुत्तों से तो उसे बचा लिया गया था मगर इस भेड़िये से बचने का जतन उसे स्वयं ही करना होगा|
हट, हट, दूर हट...मैं मार दूँगी पत्थर, चल भाग...आठ साल की वह लड़की अपने ऊपर झपट रहे कुत्तों को ललकारती हुई चीखती जा रही थी| वह मुड़-मुड़कर पीछे देखती जाती, हाथ में पत्थर होने का अभिनय करती और फिर आगे भागती जाती| साथ-साथ बगल में दबी थैली को भी टटोलती जाती|
अचानक लड़की को ठोकर लगी और वह धडाम - से सड़क पर गिर पड़ी| कुत्तों को जैसे मौका मिल गया, खुशी भरी चीत्कार करते हुए वे उसकी ओर दौड़ पड़े थे| आने वाली परिस्थिति की भयावहता को भांपकर वह गला फाड़कर चीख पड़ी थी, बचाओ, बचाओ, ये कुत्ते मुझे खा जाएँगे...उसकी चीख उस वीरान गली में गूँज उठी थी|
कुत्ते लगभग उस पर झपटने ही वाले थे कि अचानक किसी वाहन की तेज़ रोशनी उन पर पड़ी और वे चौंधियाते हुए वहीं ठिठक गए| एक-दो ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो एक पत्थर तेज़ी से उन्हें आ लगा| खतरे को सूंघकर बाकी कुत्ते भी हल्की आवाज़ में गुर्राते हुए यहाँ-वहाँ हो लिए| एक हाथ ने सड़क पर गिरी हुई लड़की को उठाया और सड़क के किनारे खड़ा कर दिया|
अकेले कहाँ जा रही थी इतनी रात गए तुम? उस भारी आवाज़ ने पूछा|
बाबा की दवा खत्म हो गई थी, माँ ने दवा लाने को भेजा था| वह बगल की थैली को टटोलते हुए थरथराती आवाज़ में बोली|
ठीक है, चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ...
वह खुशी-खुशी मोटरसाइकिल पर सवार हो गई थी|
अंकल, मेरे घर का रास्ता यहाँ से है...मोटरसाइकिल को दूसरी दिशा में मुड़ते देख वह बोली|
हाँ, बस ज़रा सा काम है यहाँ, फिर चलते हैं घर...
मोटरसाइकिल एक अँधेरे कमरे के पास जाकर रुकी|
आ जाओ अंदर...
उसके न चाहते हुए भी उसे अंदर घसीटा जाने लगा था| वह उसकी मंशा समझ गई थी, कुत्ते तो चले गए थे मगर भेड़िया उसकी चीर-फाड़ के लिए प्रकट हो गया था| उसने उसकी कलाई पर पूरी ताकत से अपने दांत गड़ा दिए और दरवाज़ा उसके मुँह पर भेड़ते हुए वहाँ से बेतहाशा भाग निकली थी| उसे अहसास हो गया था कि कुत्तों से तो उसे बचा लिया गया था मगर इस भेड़िये से बचने का जतन उसे स्वयं ही करना होगा|
नियति
वह लोगों के घर में साफ़-सफाई का काम करती थी। पति दिन भर मज़दूरी करता, शाम को नशे में धुत घर आता .. अपनी मनमानी करता ...कभी उसे बिछौने की तरह सलवटों में बदलकर तो कभी रुई की तरह धुनकर ...
वह मन ही मन उससे घृणा करती थी। करवा चौथ आती तो सास जबरन उसे सुहाग जोड़ा पहनने को कहती, सज-सँवरकर व्रत करके पति की लंबी आयु की प्रार्थना करने को कहती .. वह यह सब करना न चाहती पर उससे जबरन करवाया जाता।
एक दिन उसका शराबी पति ट्रक के नीचे आकर मर गया। उसे मानो नरक से मुक्ति मिली।
आज वह खूब सजना-सँवरना चाहती थी, मुक्ति के आनंद में हँसना खिलखिलाना चाहती थी पर उसके तन पर लपेट दिया गया सफ़ेद लिबास और होंठो पर जड़ दी गई ख़ामोशी…चुप्पी ...
वाह री नियति ......!
वह मन ही मन उससे घृणा करती थी। करवा चौथ आती तो सास जबरन उसे सुहाग जोड़ा पहनने को कहती, सज-सँवरकर व्रत करके पति की लंबी आयु की प्रार्थना करने को कहती .. वह यह सब करना न चाहती पर उससे जबरन करवाया जाता।
एक दिन उसका शराबी पति ट्रक के नीचे आकर मर गया। उसे मानो नरक से मुक्ति मिली।
आज वह खूब सजना-सँवरना चाहती थी, मुक्ति के आनंद में हँसना खिलखिलाना चाहती थी पर उसके तन पर लपेट दिया गया सफ़ेद लिबास और होंठो पर जड़ दी गई ख़ामोशी…चुप्पी ...
वाह री नियति ......!
तमीज़
घर में चहल-पहल थी|
क्यों न हो, नई बहू को आए कुछ ही दिन हुए थे, लोगों का आना-जाना चल रहा था| तो ऐसे ही पटना वाली ताई जी आई हुई थीं, जो किसी कारण से शादी में न आ पाई थी|
गर्मी बढ़ गई थी इसलिए नई बहू सबके लिए स्मूदी लेकर आई| दूल्हे ने अपनी दुल्हन की ओर देखकर चुहल भरे स्वर में पूछा, तुमने बनाई क्या?
बहू ने मंद मुस्कान के साथ सिर हिलाया|
"अरे बाबा, तब तो सब ध्यान से पीना हाँ...रसोई में कच्चा है हाथ बेगम का अभी"...दूल्हा मज़ाक के सुर में हँस पड़ा था|
बाकी सब भी हँस पड़े, नई बहू का चेहरा म्लान सा पड़ने लगा|
अचानक चाचीजी उठी, दूल्हे के पास जाकर बोलीं, "बात करने और व्यवहार की तमीज़ भूल गए हो या सीखी ही नहीं थी?"
अब क्लांत होने की बारी दूल्हे की थी| अकबकाकर बोला, "पर मैं तो मजाक कर रहा था..."
"नहीं, यह मज़ाक नहीं था, अपमान था..." चाचीजी का स्वर ठहरा हुआ था|
"अरे, मेरी पत्नी है यह, मेरा अधिकार बनता है..."
"हाँ, यही समझाना चाहती हूँ कि तुम्हारी पत्नी है यह, किसी के सामने हँसी उड़ाने का सामान नहीं...अधिकार बनता है इसका इज्ज़त पाने का...याद रहे आगे से..."
कमरे में सन्नाटा छा गया था और बहू के चेहरे की दमक लौटने लगी थी|
------------------------------------------------------------------------------- भारती पंडित
दीपक नाईक
बाल दिवस
बाल दिवस समारोह चल रहा था,नेताजी भाषण दे रहे थे।अपने भाषण में वे बच्चों के सामाजिक-शैक्षणिक एवं आर्थिक उत्थान हेतु सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं की जानकारी दे रहे थे।
समारोह की अंतिम कड़ी के रूप में स्वल्पाहार का दौर चल रहा था।
ऐ बारीक ! जल्दी से नेताजी के लिए ज्यूस लेकर आ।
नेताजी के बगल में ही बैठे उनके किसी सहयोगी ने रौबदार अंदाज में आदेश दिया।
तथाकथित प्रतिष्ठा
हर वर्ष की भांति इस बार भी समाज के कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी।मुद्दा(एजेंडा)था,अध्यक्ष पद का चुनाव। श्री ख अति-आत्मविश्वास के साथ आशान्वित होकर अन्य सदस्यों की ओर देख रहे थे।विगत तीस-पैंतीस वर्षों से वे समाज की निःस्वार्थ सेवा कर रहे थे,इसलिए उनका इस तरह से आस लगाना स्वाभाविक ही था।
शीघ्र ही बैठक समाप्त हुई। कार्यकारिणी ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित कर अध्यक्ष पद सर्वसम्पन्न श्री क को प्रदान किया ।
(समाज की प्रतिष्ठा(तथाकथित) को ध्यान मेंरखते हुए इस पद पर एक चपरासी स्तर(श्री ख)के व्यक्ति को नहीं बैठाया जा सकता था।)
रेनकोट
वह दुकानदार पिछले एक वर्ष से रेनकोट के पैसे देने के लिए उस ग्राहक को तगादा कर रहा था।
तुमने मुझे फटा रेनकोट दे दिया था,
मैंने तो उसका अभी तक उपयोग ही नहीं किया,
मैंने अपना समझकर तुमसे लिया,और तुमने मुझे ही ठग लिया----
पैसे न देने के और भी ऐसे कई बहाने बनाकर वह(ग्राहक)टाल देता था।दुकानदार उस ग्राहक की पैसे न देने की प्रवृत्ति समझ चुका था।
एक सुबह तेज बरसते पानी में दुकानदार और ग्राहक सब्जी मंडी में आपस में टकरा गये ।
दुकानदार पूरी तरह भीगा हुआ,जबकि ग्राहक जरा भी नहीं।
-------------------------------------------------दीपक नाईक
दीपक कर्पे
हिन्दी दिवस
१४ सितंबर आ रहा था । राजभाषा हिन्दी की जयंती के रूप में सारे देश मे "हिन्दी दिवस" मनाने की तैयारियाँ चल रही थीं । देशभर के कार्यालयों में हिन्दी कार्य को बढ़ावा देने हेतु विविध कार्यक्रम और प्रतियोगितायें आयोजित की गईं । विजेताओं को पुरस्कार स्वरूप वितरणार्थ हिन्दी कवियों लेखकों और साहित्यकारों की प्रसिद्ध पुस्तकें बाजार में खोज खोज कर निकाली जा रही थीं।
समापन समारोह धूमधाम से मनाया गया। लेकिन अफसोस अपना संबोधन मुख्य अतिथि ने खेद प्रकट करते हुए शुद्ध अंग्रेजी में दिया,क्योंकि वे अहिंदी भाषी
"स्टेट" को "बिलॉन्ग" करते थे।
विश्वशांति और मंत्री का दौरा
निरस्त्रीकरण और विश्वशांति के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन की समाप्ति के पश्चात मंत्रीजी तुरंत विदेश रवाना हो गए।
अगले दिन समाचार पत्रों ने दुनिया को खबर दी कि " सैनिक सहायता और आधुनिक हथियारों की आपूर्ति हेतु मंत्रीजी विदेश रवाना।''
कर्तव्य परायणता
"बस आज की सगाई का कार्यक्रम ठीक तरह से निपट जाए तो गंगा नहा लूंगी" राधिका मन ही मन बड़बड़ा उठी। तैयारी के लिए सूटकेस निकालते समय पति की तस्वीर पर बरबस ही नजर चली गई और वह पुरानी यादों में खो गई। 22 वर्ष पूर्व एक फैक्ट्री दुर्घटना में उसके पति की मौत हो गई थी और उसका सुखी संसार उजड़ गया था। तब बेटी रचना मात्र 4 वर्ष की थी।
वह भैया राजेश के प्रति कृतज्ञता से भर उठी। उसने ही फैक्ट्री मैनेजर से मिन्नतें कर पति के स्थान पर काम पर दिलवाया।
"माँ कहाँ खो गई हो,देखो कौन आया है?" बेटी की आवाज सुन वर्तमान में लौट आईं राधिका।
"सारी तैयारी हो गई जीजी ?" राजेश ने पूछा।
"हाँ कर तो ली है,देखो अब एक बार आज का कार्यक्रम हो जाय तो थोड़ी राहत मिले" एक लम्बी सांस छोड़ते राधिका ने जवाब दिया।
"सब अच्छा होगा जीजी । ऊपर वाले पर भरोसा रखो जीजी" राजेश ने बड़ी बहन को संबल दिलाया।
थोडी ही देर में लड़का, उसके पिता और भाई भाभी आ गए।
"आईए आईए, स्वागत है आपका"
राजेश ने आगे बढ़ते पुष्पहार से स्वागत किया।
राजेश ने बातों बातों में विकास और उसके परिवार वालों की जानकारी ली।
"काफी सुलझे हुए लोग लग रहे हैं" राजेश ने अंदर आकर राधिका से कहा।
"विकास की माता की इच्छा थी कि बेटे का एक योग्य कन्या से विवाह हो ,आज वह भी होती तो खुश हो जाती ।लेकिन उसके भाग्य में बेटे की खुशी देखना नहीं था शायद " विकास के पिता बोले।
"भाग्य के लिखे को कौन टाल सकता है " राजेश ने इस विषय को विराम देते हुए कहा।
"सारा कार्यक्रम राजी खुशी हो गया। अब कल से पैसों के इंतजाम में लगती हूँ।" राधिका का स्वर चिंतातुर था।
"यह लो.."राजेश ने दीदी के हाथों 5 लाख का चेक शादी की तैयारी हेतु दिया।
राधिका तो विस्फरित नेत्रों से देखती रही और पूछा "भैया यह......" राजेश उसे चुप कर बोला
" दीदी ,जीजाजी की अचानक मौत के बाद ही मुझे रचना के भविष्य की चिंता थी , सो मैंने अपने बेटे रोहित के साथ ही रचना का भी एक रिकरिंग खाता खोल दिया था। बस यह मामेरा.."
भाई की दूरदर्शिता मामेरा के रूप में दर्शित हो रही थी..
राधिका बस इतना ही कह सकी " भैया...."और उसके गले से लिपट गई।
बँटवारा
सदाशिव की ७५ वां जन्मदिन चारों बच्चों ने धूमधाम से मनाया। सारे रिश्तेदार, नाती - पोते, बहुएँ उत्सव में शामिल हुए।
कार्यक्रम पश्चात सभी अनौपचारिक रूप से बैठे गपशप लगा रहे थे। सदाशिव के मित्रों ने भी बधाई देते हुए कार्यक्रम की जी भर प्रशंसा की। रघुनाथ बोले " सदाशिव तू बड़ा भाग्यवान है। कितने नेक बेटे हैं तेरे।" काशीप्रसाद भी बोले "आजकल तो शहरों से बेटे - बहुओं को गाँव में आने के लिए बड़ी मिन्नतें करनी पड़ती है।"
हरिराम तो अपनी तोंद पर हाथ घुमाते बोला "अपने को तो स्वादिष्ट खाने में आनंद आ गया भैया।कम से कम 10-12 गुलाब जामुन तो खाए ही होंगे। "
धीरे - धीरे सभी अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गए। सिर्फ बेटे - बेटी रह गए। उन्हें भी अपने अपने शहरों के लिए निकलना था, सो तैयारी करने की दृष्टि से उठ खड़े हुए। रात भी होने वाली थी।
सदाशिव गंभीर आवाज में बोल उठे " मेरे बच्चों तुमसे आज इस अवसर पर एक महत्त्वपूर्ण चर्चा भी करनी है" तीनों बेटे भी गंभीर मुद्रा में आ गए। तभी सदाशिव ने आदेश दिया कि " बैठक में तीनों बेटे शरद,विजय,चंद्रकांत और बेटी सरोज आ जायें । बाकी सभी अपने - अपने कार्य करें।" आदेश सुन एकबारगी वातावरण बोझिल हो गया ।
"आज मेरा ७५ वां जन्मदिन तुम सभी ने मिल जुलकर उत्साहपूर्ण मनाया । गाँव के लोगों ने भी हमारी जी भर प्रशंसा की। मेरी भी छाती फूलकर कुप्पा हो गई है।बड़ी अच्छी बात है।अब मैं भी अपनी जमीन जायदाद का बँटवारा कर जिम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहता हूँ। मेरे बाद किसी भी प्रकार का वाद विवाद न हो"
"नहीं पिताजी ऐसा क्यों सोचते है आप " चारों लगभग एक स्वर में बोले।
"नहीं, आखिर तुम चारों को ही तो मेरा सब कुछ मिलना है।" पिताजी बोले।
तभी सबसे बड़ा पुत्र चंद्रकांत बोला कि "पिताजी मेरी नौकरी अच्छी है।एक ही बेटी है मेरी ,जो विवाह बाद अपने घर चली जाएगी। अतः मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए।"
दूसरा बेटा शरद बोला कि "मैं रेलवे में एक अच्छे ओहदे पर होकर मेरे दोनों बेटे भी मुंबई में इंजिनियर हैं इसलिए मुझे भी कोई ऐसी आवश्यकता नही है।"
तीसरा विजय भी बोला कि "पिताजी मैं सेना में हूँ। मेरा तो जॉब ही अनिश्चित - सा है इसीलिए मैंने स्वेच्छा से विवाह भी नहीं किया है।जमीन जायदाद के झंझट में मैं भी नहीं पड़ना चाहता।"
तीनों भाई बोल पड़े कि नए कानून के हिसाब से पिता की जायदाद में बेटी का हिस्सा बराबरी का होता है ,इसी को आप सब कुछ दे दें। हमें कोई आपत्ति नहीं है।
तभी सरोज बोल पड़ी " आप सभी के आशीर्वाद से मै अपने डॉक्टर पति के साथ संपन्न और खुश हूं। किसी भी बात की कमी नहीं है। फिर मैं भी आपकी ही बहन हूं।"
" मेरा भी एक सुझाव आप सभी माने तो.......क....हूँ ।"
सभी अचानक बोले "क्या?"
"इस गांव में स्कूल तो है लेकिन उसका कोई भवन नहीं है। क्यों न हम अपनी माँ की याद में यह मकान स्कूल के लिए दान कर दें। माँ का नाम भी सदा के लिए रहेगा । फिर पिताजी भी अब अकेले यहां न रहकर हमारे साथ बारी बारी से उनकी इच्छा से रहें।"
सदाशिव भौंचक्के से चारों की तरफ देखते रहे।उन्हें भी ऐसे निर्णय की अपेक्षा नहीं थी। सभी ने सरोज के निर्णय पर राजी खुशी अपनी सहमति व्यक्त की और बाकी कार्यवाही अगले दिन करने का निर्णय कर सोने को चल पड़े।
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नयना(आरती)कानिटकर
ट्रायल रुम
मॉल के ट्रायलरूम में खड़ी वह अपने नितांत सौंदर्य को निहार रही थी..अपने पसंदिदा शॉर्ट टॉप और शॉर्ट स्कर्ट में।
उसके कानों में माँ के संवाद के शब्द बार-बार टकराने लगे...
"अब चाहे कुछ भी हो, मैं भी नये फैशनेबल कपड़े पहनूँगी ही पहनूँगी. मैं चाहे कितना भी अच्छा काम कर लू ऑफ़िस में सब लोग मुझे गाँव की गवार से ही नवाज़ते हैं." सोना ने माँ से कहा था।
"हुं sss"
"ये सिर्फ़ हुं sss क्यों? मेरी रूम मेट्स को भी देख रही हो ना आप. उनके घर में कोई कुछ ऐतराज नहीं करता" सोना ने नाराज़गी से कहा था।
"आज तक सादगी ही तुम्हारी पहचान रही है बेटा और हमारी मर्यादा, हमारे संस्कार... सुधा मूर्ति को जानती हो ना.." माँ ने सादगी से कहा था किंतु उस पर तो धुन सवार थी फैशन की। वह भी अपनी जिद पर अड गई।
शब्द काहे के माँ की दी जाने वाली चेतावनी ही थी । वह जानती थी कि माँ उसके भले के लिए ही कहती है फिर भी उसे ये सब सुनना हमेशा चुभता था। कई बार विद्रोह कर उठने का मन किया किंतु अपने पर निश्छल प्रेम करने वालों का दिल दुखाना उससे नहीं बन पाया।
इसी के साथ उसे कॉलेज के कोने पर खड़े होकर लड़कियों की तरफ़ विकृत नज़रों से निहारते आवारा लोगों की गैंग भी याद आ गई। आईने में स्वंय को घूरती नज़रे दिखाई देने लगी। अपने संपूर्ण ढके शरीर पर घूमती गंदी नज़रो से मन पर अनेक किरचे उभर आयी। अपना सलवार-कमीज फिर से पहना और बालों को कस कर पीछे बाँध लिया।
मन ही मन उन्हें एक-एक तमाचा जडने का भी प्रण करते हुए ट्रायल रूम से बाहर निकल आयी..!!
“कायांतरण”
तेईस वर्ष की होते ना होते विवाह हो गया था उसका अपने परिवार की पसंद से . वह एक लड़की से स्त्री मे बदल गई थी. सब कुछ बदल गया उसका, यहां तक कि सजना-संवरना, रीति-रिवाज सभी फ़िर भी सब कुछ रंगीन था, बहुत खूबसूरत था कि अचानक जिंदगी ने पलटा खाया, समीर उसके पति एक सड़क दुर्घटना मे छोड़कर चल बसे .अचानक आया अकेलापन ...पुन: बदलाव. रंग बदल गये सारे जिंदगी के .. मानो गायब से हो गये.
दुनियादारी हिसाब-किताब की ज्यादा चिंता नही थी पहले कभी तो सीखा भी नही था, मगर धीरे-धीरे सब सीखा .कमाई और बच्चों के भविष्य के लिए बाहर निकलना ही था.
बचपन में खिलाड़ी थी हार मानना कभी सीखा ही नहीं था. एथलीट थी फ़िर से दौड़ पडी ट्रेक पर. हॉकी खेलते हुए बॉल ड्रीबल करते गोलपोस्ट तक ले जाती थी मगर अब तो उसे सीधे गोलपोस्ट मे डालना था.
बच्चों की ख़ातिर सब सुख-दु:ख भूल गई. माँ के साथ-साथ पिता की भूमिका ज्यादा दृढता से निभाई और मजबूत होती चली गई.
समय की हर चुनौती को स्वीकारा.
उफ़्फ़! कितना कठिन दौर गुजरा यह सोच कर रुह कांप जाती हैं.कैसे थे वो दिन, पर बीत गये थे. बच्चे ग्रैजुएट होकर अपने-अपने पैरो पर खड़े हो गये थे.
तभी उसकी नींद टूटी तो क्या मैं सपना...
तभी विशु और लीनू ने कमरे मे प्रवेश किया.
" हैप्पी फ़ादर्स डे मम्मा"
“स्पर्श की तासिर”-
"नेहा बेटी ने कनाडा से आते ही कर दिया ना आपका इलाज। आप तो अब बिल्कुल ठीक लग रही है। देखो! जैसे बस आपकी बीमारी को इसी डाक्टर का इंतजार था। सुरेखा कुर्सी को पास मे खिसका कर बैठते हुए बोली
"आंटी-ई-ई-इ!" नुपूर ने शिकायत की।.
"मैने ऐसा कहाँ कहा नुपूर बेटा ? तुमने भी तो खूब सेवा की है माँ की। बेटी हो तो ऐसी और डाक्टर हो तो ऐसी। सुरेखा ने समझाईश भरे स्वर मे कहा
"प्लीज ! बस करो । बस-अ-अ-अ! " कानों पर दोनो हाथ रखते हुए नेहा फूट पडी ।
डाक्टर संबोधन सुन-सुनकर मैं थक गई हूँ। मेरे घर के लोग भी मेरी सासू माँ, मेरा बच्चा सब मुझे इसी नजर से देखते है। अपनी बीमारी मे उन्हें भी मेरे स्पर्श से राहत मिलती है। पर मैं ं सिर्फ़ एक डाक्टर की हैसियत से सेवा नहीं करती।" मेरा भी मन...
" अरे! नाराज़ क्यों होती हो बेटी, सुरेखा तो तुम्हारी तारीफ़ ही कर रही है। सुधा बोल उठी.
" मगर माँ ! मैं वहाँ भी बेचैन थी कि कोई मेरी सेवा को बहू की सेवा, पत्नी की सेवा, माँ की सेवा के रुप मे स्वीकार करे। मम्मा, कम से कम तुम तो अपनी बेटी की सेवा स्वीकार कर लो, कनाडा से आई डाक्टर की नही। डाक्टर -डाक्टर सुन कर मैं-अ-अ थक गई हूँ। नेहा फफक कर रो पडी थी।
लंबी अस्वस्थता के बाद स्वस्थ हुए सुधा की नए खून की तासीर गरम हो उठी।
" मेरी बिटिया! मेरी नेहू सच है तुम्हारा चेहरा तो एक डाक्टर के रूप मे ही उभरता था। मैं तो भूल ही गई कि तू मेरी जाया भी है। मेरी बेटी मेरी लाडो, मुझे माफ़ कर दे। नेहा के सर पर हाथ फेरती उसका पूरा चेहरा अपनी हथेलियों मे भरते हुऐ सुधा बोली। .
माँ-बेटी के इस मिलन दृश्य मे सुरेखा की आँखें भी भर आई। पर आँसू भरे सजल नेत्रो के आगे सुधा की सेवा करते वक्त नेहा के हाँथो का थरथराना, हाथ से छूट कर थर्मामिटर का फूटना... सबके अर्थ अब उसे साफ़ दिख रहे थे।
---------------------------------------------------------------------------------नयना(आरती)कानिटकर
निशिकांत कोचकर
गुब्बारे
डॉ.अवतार सिंह ने एक सप्ताह की कड़ी मेहनत से रिपोर्ट तैयार की। आदिवासी अंचल के अनेक गांवों का दौरा किया। बदहाली और गरीबी के शिकार आदिवासी अनेक शासकीय योजनाओं से अपरिचित व वंचित थे। उन्हें उचित शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की अत्यंत आवश्यकता थी। अब तक जो भी सहायता या सुविधाएं उनको मुहैया करवाई है थी वो सब अपर्याप्त थी, या पता नहीं अं तक पहुंची भी कि नहीं। डॉ.अवतार सिंह ने मेहनत से तैयार की रिपोर्ट अपने अधिकारियों के मार्फत कलेक्टर साहब तक पहुंचा दी थी। उन्हें उम्मीद थी कि उनकी रिपोर्ट पर शाबासी मिलेगी और प्रशंसायुक्त प्रमाणपत्र भी मिलेगा।
कलेक्ट्रेट में मीटिंग के बाद जब वो बाहर आए तो कुछ संवाद उनके कानों पर पड़े।
" इस रिपोर्ट से तो निश्चित ही अतिरिक्त बजट बढ़कर मिलेगा। "
" हां, मेरे मकान का अधूरा पड़ा काम अब पूरा हो जाएगा।"
" मेरे प्लॉट की किश्ते भी मैं एक साथ भर दूंगा।"
" हां भाई, इस बार दशहरे पर तो मेरी कार पक्की।"
ये सब बातें सुनकर डॉ. अवतार सिंह के मन में आशाओं के आश्वस्त भरे गुब्बारे हवा में उड़कर काफूर हो गए।
लिव- इन
तीन साल पहले रश्मि अपना सब कुछ छोड़कर अरुण के पास आ गई थी।घरवालों का काफी विरोध था।सहेलियों, मित्रों ने भी समझाया, किन्तु वह सुदर्शन, आकर्षक व्यक्तित्व के धनी अरुण के मोहजाल में इस कदर उलझ गई थी कि उसकी विचार शक्ति ने काम करना बंद कर दिया था। उसे अपने इस निर्णय पर आज तक पुनर्विचार करने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। अरुण से उसे भरपूर प्यार मिला था। टूर पर भी जाता था तो उसके लिए हमेशा कुछ न कुछ महंगी गिफ्ट लेकर आता था।
किन्तु आज जैसे ही उसने अरुण से नए मेहमान के आगमन की सूचना दी, अरुण नाराज़ हो गया। खुश होना तो दूर उसने रश्मि को उलाहना भी दिया कि सावधानी नहीं बरत सकती थी।
शाम को घर पर आते ही उसने एक और धमाका किया।
" कल मैं अहमदाबाद जा रहा हूं। मेरा यहां का काम अब खत्म हो गया है।"
" काम खत्म हो गया है मतलब? वापस कब आओगे? " रश्मि ने चिंतित स्वर में पूछा।
" वापस क्यों आऊंगा? हमेशा के लिए जा रहा हूं।"
" हमेशा के लिए? अहमदाबाद में क्या नई नौकरी लग गई है? ऐसा क्या है वहाँ पर?"
" वहां पर मेरा परिवार है। बीवी है। बच्चे हैं।"
रश्मि के सपनों पर वज्राघात हुआ। उसे कुछ सूझ ही नही रहा था कि उससे कहाँ गलती हुई है।
वी. आई. पी.इलाज
यशवंत के सिर में दर्द हो रहा था और चक्कर भी आ रहे थे। दो चार दिन दवा लेने पर भी जब आराम नहीं हुआ तो उसने शहर के बड़े नामी अस्पताल में इलाज कराने का सोचा। डॉ.चौहान ने उसे देखते से ही सबसे पहले तो खून, पेशाब की जांच, एक्स रे और ई सी जी करवाने के लिए कहा।साथ ही ई एन टी की और आंख की जांच करने की सलाह दी।
आंखों के डॉक्टर ने जांच कर कहा कि आपकी आंखों का प्रेशर बढ़ा हुआ है, नस पर भी असर हो रहा है। पहले तो आप सी. टी. स्केन, एम. आर. आई. और कलर डॉपलर की जांच करवा लाओ, उसके बाद देखेंगे । नाक, कान, गले के विशेषज्ञ ने जांच कर कहा कि आपकी नाक की हड्डी टेढ़ी हो गई है, उसका तो ऑपरेशन ही करना पड़ता है, लेकिन आप पहले एकोकर्डियो और ओडियोमेट्री की जांच करवा लाओ तब आगे बढ़ेंगे तो अच्छा रहेगा। मन में कोई शंका नहीं रहना चाहिए।
ये सब जांचे करवाकर रिपोर्ट लेकर यशवंत वापस डॉ.चौहान के पास गया। उन्होंने गंभीरता से विचार करने के बाद चिंतित स्वर में कहा
" आपको तो बड़ी गंभीर बीमारी है। भर्ती होना चाहिए और कुछ विशेष जांचे भी करना पड़ेगी।"
"डॉक्टर साहब मुझे हुआ क्या है?"
"आपको लिमफोकेवर्नोसिस हुआ है और ये बड़ी खतरनाक बीमारी है।"
"ठीक है डॉकसाब अभी आप दवा लिख दें मै फिर व्यवस्था करके आऊंगा। अभी का कितना बिल हुआ है? "
बिल देखकर तो उसके होश उड़ गए। पचपन हजार रूपए का बिल था, और ऊपर से दो ढाई हजार की दवाइयां अलग।
जब ये बात उसने अपने दोस्त सुनील को बताई तो वह नाराज़ होकर उस पर चिल्ला पड़ा
"अबे तुझे किसने कहा था उस कॉर्पोरेट अस्पताल में इलाज कराने जा। लूट है वहां तो लूट।"
जब उसने दवाइयों के बारे में पूछा तो मालूम हुआ कि वो तो सब टॉनिक है। सिरदर्द की तो मात्र एक गोली है।
------------------------------------निशिकांत कोचकर
मीनल विद्वांस
वादा
आज मेरी सहेली की बेटी की शादी है। पूड़ी का पहला कौर मुंह में डालते ही मुझे याद आया आज मैं टॉमी को खाना देना भूल गई !
हमारी इकलौती बेटी ईशा की भूख हड़ताल के बाद टॉमी हमारे घर आया था। ईशा और विनय का लाड़ला टॉमी, मेरे मन को कभी ना भाया । मैं उसे अपने पास फटकने भी नहीं देती थी और वह भी जल्दी समझ गया , यहाँ उसकी दाल नही गलने वाली । मेरी बेटी ईशा की शादी के बाद घर पहुंचते ही, पहली बार टॉमी मेरे पास आकर बैठ गया ! ना जाने क्यों मेरा हाथ भी उसके सर पर चला गया ! जब भी मैं अकेली उदास बैठती, तब वह मेरे पैरों के पास आकर बैठ जाता।
"नेहा खा ना ! कब से कौर हाथ में लेकर बैठी है." साधना बोली, लेकिन एक कौर भी मेरे गले के नीचे नहीं उतरा । जल्दी से रिक्शा लेकर घर पहुँची, तभी मोबाइल बजा, ईशा का फोन! अभी!
"हेलो माँ ! कैसी हो?"
"ठीक हूं बेटा। "
"टॉमी कैसा है ? आज बहुत याद आ रही है उसकी,वह तुम्हारा ध्यान रखता है कि नहीं?"
"मतलब।"
"माँ मैंने उससे कहा था ,मेरे जाने के बाद माँ का ध्यान रखना ।"
"बेटा मैं तुम्हें बाद में फोन लगाती हूं ।"
टॉमी घर में दरवाजे के पास ही बैठा था । मुझे देखकर उछल कूद करने लगा। पहली बार मैंने उसे गले लगाया और पुचकारा । शाम को विनय आए, तब मैं और टॉमी एक ही सोफे पर बैठे हुए थे ।
"यह क्या? टॉमी आज तुम्हारे पास सोफे पर?"
मैं मुस्कुरा दी और उनके लिए चाय बनाने चल दी। टॉमी अपना वादा निभा रहा था और मैं भी अपने आप से किया वादा कि मैं भी उसका ध्यान रखूंगी।
दुर्गा
"रमा मुझे मंदिर तक छोड़ दोगी क्या ? " ऑफिस जाने के लिए तैयार होती अपनी बहू से मैंने पूछा.
"हां क्यों नहीं माँ ! आपकी सेवा में ड्राइवर हाजिर है "
मंदिर की सीढ़ियों पर रत्ना काकी मिल गई।
" कैसी हो मनीषा ? बड़ी भाग्यशाली हो !मंदिर छोड़ने बहू कार से आती है "
"हाँ काकी बहू तो मुझे समझदार मिली है, आओ काकी मंदिर के अंदर चले"
"तुम जा आओ मैं अभी नाम स्मरण कर रही हूं"
वापसी में काकी फिर किसी से बतिया रही थी . मैं भी उनकी तरफ चल दी .
"अभी मनीषा को उसकी बहू छोड़कर गई है, रमा नाम है उसकी बहू का। नौकरी करती है, सुबह आठ की गई रात को आठ बजे आती है ।ना जाने क्या-क्या गुल खिलाती होगी !!" काकी के बोल मेरे कानों में पड़े।
"काकी अपने बेटे और पति से भी पूछ लेना ? कि सुबह आठ के गए रात को लेट आते हैं । तो बाहर क्या-क्या गुल खिला कर आते हैं?"
"अरे मनीषा तुम!"
"हाँ मैं. "
"मैं तेरा बुरा ना चाहूं मनीषा। तू ही बता सुबह की गयी बहू , रात को लौटती है। कभी कुछ ऊंच-नीच हो गई तो ?"
"बस कीजिए स्त्री पर कीचड़ उछालना ,कब आप स्त्री को व्यक्ति का दर्जा देंगी ? मेरी बहू को नौकरी मिली है , क्योंकि बतौर व्यक्ति वह उस पद के लिए योग्य है। उसमें है हिम्मत, इसलिए वह घर और बाहर दोनों जगह की जिम्मेदारी उठा रही है। याद रखिए ! इन पढ़ी लिखी सुशिक्षित स्त्रियों के कारण ही आज आप शान से रह पा रही हैं। आज से पचास साल पहले की स्त्रियों की दुर्दशा याद कर लीजिए। अच्छा ना बोल पाए, कोई बात नहीं ,लेकिन कीचड़ मत उछालिए और खबरदार ! मेरी बहू के बारे में अगर फिर कुछ गलत कहा। वह हमारे घर की गृहलक्ष्मी है और विपरीत समय में दुर्गा भी बन सकती है."
मैं चप्पल पहन कर सीढ़ियां उतरने लगी। सामने नम आंखें लिए रमा मेरे सामने खड़ी थी।
"मां आप प्रसाद लाना भूल गई "कह कर उसने मेरे हाथ में पेड़े का डब्बा दिया।
"कोई बात नहीं बिटिया आओ हम दोनों मिलकर भोग लगा देते हैं. "
वापसी में सीढ़ियाँ उतरते समय रत्ना काकी मंदिर के दरवाजे पर खड़ी मिली।
"रमा बिटिया मुझे प्रसाद ना देगी क्या ? इस बुढ़िया को माफ कर देना."
रमा ने झुककर प्रणाम किया और एक पेड़ा उनके हाथ में रख दिया।
सपना
अपने पोते से मिलना और साथ में विदेश यात्रा स्वर्गीय सुख से कुछ कम नहीं है। मैं और रमेश दोनों अपने इकलौते बेटे के बेटे से मिलने कनाडा के लिए निकल पड़े । एयरपोर्ट पर सुंदर टॉप और उसके साथ डेनिम जींस पहने एक स्मार्ट लड़की मेरे पास आ बैठी ,बचपन से ही मुझे जींस पहनने का बड़ा शौक था , लेकिन छोटे से गांव में जहां लड़कियां स्कूल जा पाएँ ,वही बड़ी बात है, वहां मैं जींस कैसे पहनती ?
अठारह वर्ष की होते ही बाबूजी ने शहर के बड़े परिवार के सुंदर रमेश को मेरे जीवन साथी के रूप में चुना। जहां मेरी सहेलियां मेरे सुंदर पतिदेव पर रश्क कर रही थी ! वहां मैं खुश थी ,कि अब शहर जाकर मैं जींस पहन सकूंगी!! अभी मैं भाग्य पर इतरा ही रही थी कि, इनसे पहली भेंट में ही खुलासा हुआ कि,
" हमारा परिवार बड़ा है, मान बड़ा है , तुम्हें सब छूट मिलेगी लेकिन तुम्हें साड़ी ही पहनना पड़ेगी ."
हम स्त्रियों कों आदत है अपनी इच्छाओं को गहरे दफन करने की।
अच्छी बहू ,पत्नी, माँ,सासू माँ सभी रिश्ते पूरी ईमानदारी से निभाते हुए ,आज न जाने क्यों? मैं इस मूई जींस में अटक गई।
"संगीता उठो हमारी फ्लाइट अनाउंस हो गई है "
एयरपोर्ट पर बेटा, बहू और पोता हमें लेने आए थे । घर पहुंचते ही बहू मेरा हाथ पकड़ कर मुझे हमारे कमरे में ले गई।
" मम्मा आप नहा लीजिए, मैं नीचे खाना लगाती हूं "
"पर बेटा मेरा सामान कहां है ? यहां तो सिर्फ तुम्हारे पापा का सामान है"
" आपका सामान यहां है " कह कर उसने सामने का कबर्ड खोला उसमें बहुत सारे सुंदर टॉप और डेनिम जींस थी।
"यह क्या बेटा !!!
" मम्मा ! आप यही सब कपड़े पहनिए , आप पर बहुत अच्छे लगेंगे."
" मुझे तो पसंद हैं ,पर पापा क्या कहेंगे?"
" पापा सॉरी कहेंगे" सामने खड़े इन्होने कहा।
"यह सब क्या है?"
" तुम्हारा सपना अब राज़ नहीं रहा ! कुछ दिनाे पहले तुम्हारी बचपन कि सहेली मीना ने तुम्हारा राज़ मुझे बताया। सोचा भूल सुधार का इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा " मुस्कुराते हुए ये बोले।
मैं सोचने लगी सपने पूरे होते हैं, सत्रह में नहीं तो पचपन में सही।
-------------------------------------------------------- मीनल विद्वांस
रश्मि प्रणय वागले
१. तुम्हारे जाने के बाद भी ,
महकती रहती हैं बड़ी देर तक तुम्हारी लगाई हुयी ' कोलोन ' की महक ....
वो दीपक जो लगाया हैं तुमने पूजाघर में टिमटिमा कर देता रहता हैं ऊर्जा दिन भर ...
ताजे गुलाब,चमेली,और रंगबिरंगे फूल शृंगार करते हैं देवताओं का,लेकिन मन को प्रसन्न कर जाते हैं मेरे भी ....
धुप और लोभान की खुशबु से पवित्र हो जाता हैं ,जैसे घर का हर कोना कोना ...
और स्टडी में बेतरतीब पड़ी किताबें, घर भर में बिखरे पड़े उनके कपडे , खिलौने,
गुड़िया और अनगिनत छोटी बड़ी जरुरी -गैर जरुरी चीजों से भरा पडा टेबल उनका ... जो उनके लिए नहीं हैं किसी भी खजाने से कम ,
जूठे बर्तन ,पानी की खाली बोतलें, बासी अख़बारों की रद्दी, घर के अन्दर आते हुए चुपचाप चली आयी बगीचे की मिटटी,
एक नहीं बीसियों ऐसे सबूत जो पड़े रहते हैं इधर -उधर ....... शोरगुल -हो हल्ले के साथ शुरू हो जाता हैं मेरा दिन ....
और फिर
..... मैं .और अस्तव्यस्त पडा हुआ सारा घर ..
समेटती हूँ ,सँवारती हूँ ,सहेजती हूँ इसे दिन भर ...
हूँ ....... अब सब ठीक हैं सब कुछ कैसा व्यवस्थित ,स्वच्छ,यथास्थान ... लेकिन फिर भी कुछ कमी हैं ..... ..
उफ़ !!!!!
कितना भी कोशिश करूँ इस बाहरी आवरण को खुबसूरत बनानें की ....
लेकिन रह जाता हैं ये हर बार बन कर सिर्फ ' मकान ' .... आखिर कब तक ...
हाँ बेशक !!! तब तक ,,जब तक तुम सब वापस नहीं आते शाम को, तुम्हारी मुसकुराहट,तुम्हारी नाराजगी ,तुम्हारी खिलखिलाहट ,तुम्हारी शरारतें ,तुम्हारी शैतानियाँ ,कलदार की तरह खिलखिलाती तुम्हारी हँसी , दिन भर का पूरा ब्यौरा दे देनें को बेताब मन ,असीमित बातें और इन सबसे बढ़ कर.....
तुम्हारा प्रेम .....
हाँ जब तक ये सब,नहीं ,इस चारदीवारी में तब तक ये नहीं बनता हैं अपना " घर "
२.
मम्मी प्लीज जाने दो, मुझे 8 दिन का ही टूर है , मेरे सारे फ्रेंड्स जा रहे है। 8 दिन ? नहीं नहीं,डायरेक्टर साहब किसी और को रख लेंगे तुम्हारी जगह ……
मम्मी प्लीज सोने न थोड़ी देर और बहुत थक गयी हूँ. अरे नहीं बेबी, जल्दी उठ जाओ , मैंने तुम्हारे टीचर से बात कर ली है , वे पहले तुम्हारा एग्जाम ले लेंगे. फिर वहां से हम सीधे सेट पर चले जाएंगे।
आज की शूटिंग कितनी महत्वपूर्ण है , तुम्हे पता है न, फिर रास्ते में डायलॉग भी याद कर लेना।
वाह देखो, तुम्हारे कारण सीरियल की टीआरपी कितनी बढ़ गयी है।परसों एक जगह और ऑडिशन के लिए बुलाया है, बहुत बड़ा बैनर है वो भी।
मम्मी मुझे नहीं करना कहीं काम , मुझे भी खेलने जाना है , मॉल जाना है , चाट-पकौड़ी खाना है। क्या रोज रोज मेकअप लगाओ ,ऐसे चलो , वैसे बोलो , यूँ मत हंसो .... मुझे नहीं करना ये सब
चुप बैठो , अब ज्यादा चू-चपड़ मत करो ,कहाँ तो लोग तरस जाते है इतनी सफलता, नाम, पैसा पाने के लिए ,तुम्हे ये सब मिल रहा है तो ………मम्मी ने ज्वलंत निगाहों से उसे देखा
और 10 साल की सृष्टि ने चुपचाप अपने गोदी में पड़ी अपनी सबसे प्यारी गुड़िया को सरकाया और संवाद याद करने के लिए स्क्रिप्ट पढ़ने लगी।
3
इन्स्पेक्टर साहब गिरफ्तार कर लीजिये इन दानवों को ,इन्होनें ही हमारी रौशनी को मार डाला हैं ... अरे पिछले तीन साल से ये उसे परेशान कर रहे थे ,अभी तक महँगी कार,फ़र्निचर,लाखो कैश,तोले भरभर सोना क्या क्या नहीं दे चुके हैं इनको,लेकिन इनकी भूख शांत नहीं हुयी .. "
अभी अभी दिल्ली से आये रौशनी के माता-पिता और अन्य मायके वाले बहुत ही गुस्से में थे ,दुःख,क्रोध,क्षोभ उनकी बातों से जहर बन कर निकल रहा था.
उधर रौशनी का पति सास ससुर और अन्य ससुराल वालों को पुलिस नें पहले से ही हिरासत में ले रखा था ..
जैसे तैसे झगड़ों,आरोप-प्रत्यारोप के बीच उसका क्रियाकर्म किया गया.. शाम को जब मायके वाले वापस जाने लगे,तो इन्स्पेक्टर नें उसके माता पिता का रास्ता रोक लिया ...
" ठहरिये आप दोनों नहीं जा सकते ... "
" नहीं जा सकते ... ? लेकिन क्यूँ ,आरोपी आपके सामने हैं इन्स्पेक्टर . रौशनी के पति और ससुरालवालों ने ही उसे मरने पर मजबूर किया हैं ,मारा हैं . मरने से पहले खुद रौशनी ने आपसे ये कहा न .... ? और ये बात वे भी कुबुल चुके हैं .. फिर हमारा क्या काम ? अब सीधे उन्हें फांसी पर चढ़ते देखनें के लिये ही हम आयेंगें ... "
हूँ ... उन्होंने तो अपना जुर्म कुबुल कर लिया,लेकिन आप ? आप कब अपनी गलती मानेंगे ? " इन्स्पेक्टर नें उनसे कहा
" हम? क्या बकवास हैं इंस्पेक्टर ,आप जानते नहीं समाज में हमारी कितनी इज्जत-कितना मान-सम्मान -रूतबा हैं ... ? आप कहना क्या चाहते हैं?
" वही,जो आपकी बेटी मरने से पहले अपनें ख़त में लिख के गयी .... ये देखिये वो ख़त .. "
काँपते हाथों से उन्होंने वो ख़त पढ़ना शुरू किया " आदरणीय मम्मी-पप्पा मैनें कई बार आपको बतलाया कि मुझे यहाँ कितना दुःख हैं ,मैं यहाँ कितनी असुरक्षित हूँ, मेरी जान को ख़तरा हैं ... बस अब और नहीं सहन होता मुझसे ... मैं जा रही हूँ ... आपनें हर बार.. कभी इनके मुंह में पैसा ठूंस के,तो कभी मुझे अपनी इज्जत की दुहाई दे के , कभी संस्कारों की बेड़ियाँ.
-----------------------------------------रश्मि प्रणय वागले
वसुधा गाडगिळ
सामाजिक दूरी
"अखबारों में भी छप गया है ,अब सामाजिक दूरियाँ रखनी पड़ेंगी। न कहीं आना , न जाना ! हम सभी को घर में कैद होकर बैठना है ! समझे...काहे के रिश्ते- काहे के नाते ! " मनसुखभाई ने परिवार के सभी सदस्यों को समाचार पढ़कर सुनाया फिर तनावग्रस्त होकर बोले
" ओह ! बड़ा मुश्किल दौर आ गया है ! "
" आसान है बेटा ! तुम सब लोग साथ में बैठते-खाते हो....मैं तो इतने सालों से बाजू वाले कमरे में अकेला...! " पिता के मुँह से सामाजिक दूरी का उदाहरण सुनते ही मनसुखभाई सन्न रह गये !
अपरिवर्तनशील
अंशु और उसकी दादी दूरदर्शन पर " साजन " फिल्म देख रहे थे। फिल्म में नायिका पूजा का संवाद जारी था...
" अमन ,आकाश तुम दोनों ने मुझसे प्यार किया ....मुझे खिलौना समझा ! क्या मुझे मेरी ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक़ नही ! " विकल हो रही , आँसू बहा रही नायिका का दुःख उसके अभिनय में उमड़ रहा था। दादी बड़े ध्यान से देख रही थी। अचानक बोल पड़ी
" ऐ री बाई ! बा राजकपूर - बैजंतीमाला की " संगम " मा भी एइ बात थी.... बिलकुल एइ दिखाया था ! गोपाल और सुंदर की प्रेमिका " राधा "भी एई बोली थी....कि मैं कहाँ जाऊं ! मुझे तुम दोनों ने क्या समझा है ! " दिमाग पर ज़ोर डालते हुए वह कुछ संवाद बताने लगी।
अंशु ने चौककर पूछा
" दादी , इतने सालों बाद भी फिल्मों में वही डायलॉग मने वही सब चल रहा है ! "
" कुछ नही बदला बिटिया ! कुछ नहीं...फिलम वाले तो वही दिखाएंगे ना.....हम औरत जात जहाँ थीं , आज भी वहीं ... ! " कहते हुए दादी की आवाज़ भर्रा गई । जवान हो रही अंशु की ओर देखते हुए पल भर में उनकी आँखें ड़बड़बा गई !
केंकड़ा
पिछले कई दिनों से पूरे क्षेत्र में मूसलाधार वर्षा हो रही थी। गांव के आसपास की छोटी- बड़ी नदियां उफान पर थी ।नदी पर बनाया गया बांध फूट गया था। गॉँव और उसके आसपास के इलाके डूब गए थे। अनेक लोग बह गए, बस्ती उजड़ गयी , चारों ओर मातम छा गया।
राजधानी से मंत्रीजी पीड़ित क्षेत्र में संवेदना व्यक्त करने पहुंचे। स्थानीय महकमे के साथ उन्होंने ग्रामीणों से चर्चा की ग्रामीण नाराज थे क्षुब्ध थे।
"आप लोग क्या काम करते हैं !हमारा खेत हमारा पेट ! हमारी चिंता कब करेंगे !"
" देखिए , हमने जांच कमेटी बैठा दी है .... उन्होंने अपनी पहले रिपोर्ट भी दे दी है। इस शोक की और दुख की घड़ी में हम आपके साथ हैं। " मंत्रीजी ग्रामीणों को शांत करने का प्रयास करने लगे।
" रिपोर्ट ! कैसी रिपोर्ट !" ग्रामीणों का गुस्सा फूट पड़ा था
" बाँध फूटा इसमें हमारी कोई गलती नहीं है ! "
" गलती नहीं !.... बांध के उम्र , ज़मीन , नदी का प्रवाह , बांध बनाने की सामग्री की क्वालिटी पर ध्यान क्यों नहीं दिया गया ? नीचे से ऊपर तक सभी भ्रष्टाचार में डूबे हैं ! " एक ग्रामीण युवक बोला।
उसकी बात पर मंत्री जी उखड़ पड़े।
"आप लोग ऐसा इल्ज़ाम नहीं लगा सकते ! "
ग्रामीणों में रोष व्याप्त था। वे मंत्रीजी के करीब आने लगे
" भाइयों हमारा कोई दोष नहीं ! दरअसल बाँध की दीवारों में केंकडों ने बड़े-बड़े बिल बना दिए थे.... जिससे दीवारें खोखली हो गई और बांध फूट गया ! " मंत्रीजी ने वक्तव्य जारी कर ग्रामीणों को समझाने का प्रयत्न किया।
उनके वक्तव्य से ग्रामीण युवक तैश में आ गया। वह बिफरते हुए बोला
" नदी में तो छोटे-छोटे केंकड़े थे ...लेकिन ज़मीन पर आप जैसे बड़े- बड़े केंकड़े रहते हैं जो बांध ही नहीं इस धरती को भी खोखला कर रहे हैं ! "
युवक के साथ उपस्थित ग्रामीण मंत्रीजी के विरोध में नारे लगाने लगे। वे मंत्रीजी और महकमे के साथ धक्का-मुक्की करने लगे। फूटे बांध के किनारे खड़े मंत्री जी का पैर अचानक फिसल गया और वे पानी में गिर गए
" देखो बड़ा केंकड़ा अपने बिल में घुस रहा है ! "कहते हुए सारे ग्रामीण मंत्री जी के खिलाफ नारे लगाने लगे। उधर महकमे के लोग उन्हें पानी से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे...मंत्रीजी की अवस्था देख उन सभी चेहरों पर व्यंग भरी मुस्कान थी।
-------------------- वसुधा गाडगिळ
लघुकथा में कालखंड दोष
योगराज प्रभाकर
लघुकथा भले ही कहानी का बोनसाई रूप लगती हो किन्तु यह भी सत्य है कि अपने विशिष्ट कलेवर एवं फ्लेवर के कारण ही लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा के रूप में पहचान प्राप्त हुई है I मुख्यत: दो बातों की वजह से लघुकथा को कहानी से अलग माना जाता है :
१. लघु आकार
२.एकांगी व इकहरा स्वरूप
लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमे विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं होती है । लघुकथा किसी बड़े परिपेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे मेग्निफाई करके उभारने का नाम है ।लघुकथा विधा के सन्दर्भ में यहाँ "क्षण" शब्द के अर्थ जानना नितांत आवश्यक हो जाता है । यह "क्षण" कोई घटना हो सकती है, कोई सन्देश हो सकता है, अथवा कोई विशेष भाव भी हो सकता है । यदि लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो ज़ाहिर है कि लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है । अर्थात लघुकथा में एक से अधिक कालखंड होने से वह "कालखंड दोष" से ग्रसित मानी जाएगी तथा लघुकथा न रहकर एक कहानी (शार्ट-स्टोरी) हो जाएगी तथा । इस विषय में डॉ. शमीम शर्मा की बात का ज़िक्र करना आवश्यक हो जाता है। उसके कथनानुसार कथावस्तु कहानी की तरह लघुकथा की रीढ़ है। उसमें उपकथाएँ, अंत:कथाएं या प्रासंगिक कथानक नहीं होते, केवल आधिकारिक कथा ही रहती है। लघुकथा में कथावस्तु की एकतंता, लघुता और एकांगिता अति आवश्यक है। लघुकथा की कथावस्तु अत्यंत प्वाइंटिड होती है। लघुकथा रचना के मूल में एक बिंदु होता है। यहाँ भी "एक बिंदु" की बात कही गई है जिसका सीधा सादा अर्थ यह है कि अर्जुन की भांति एक लघुकथा का निशाना भी केवल मछली की आँख पर ही केन्द्रित रहना चाहिए ।
लघुकथा का एकांगी स्वभाव का होना भी यही इंगित करता है कि लघुकथा केवल एक ही कालखंड पर आधारित होनी चाहिए ।अत: माना जाना चाहिए कि कोई भी कथा-तत्व युक्त गद्य रचना मात्र अपने लघु आकार के कारण ही लघुकथा नहीं कहलाती, वस्तुत: उसका कालखंड दोष से मुक्त रहना ही उसे लघुकथा बनाता है । डॉ. मनोज श्रीवास्तव के अनुसार: लघुकथा के लिए किसी भी काल या स्थान का एक छोटा-सा दृष्टांत या प्रसंग़ ही पर्याप्त है जिसमें कथाकार अपनी गहन अनुभूति के माध्यम से समाजोन्नयन का महान लक्ष्य साकार कर सके और वह अपने साधारणीकृत अनुभव के जरिए जन-सामान्य से तादात्म्य स्थापित कर सके। यहाँ डॉ. मनोज श्रीवास्तव जी के "किसी भी काल" तथा "स्थान" पर ध्यान देना आवश्यक है, इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लघुकथा में एक से अधिक कालखंड की कोई गुंजाइश ही नहीं है। श्री कृष्णानन्द कृष्ण ने भी कहा है कि "लघुकथा के कथानक का आधार जीवन के क्षण विशेष के कालखंड की घटना पर आधारित होना चाहिए।"
डा० शंकर पुणतांबेकर मानते हैं कि लघुकथा की खिड़की से हम जीवन के किसी कमरे में ही झाँकते हैं, खिड़की का छोटापन यहाँ बाधक नहीं बनता। उलटे वह हमारी दृष्टि को ठीक उस जगह केंद्रित करता है जिसे दिखाना खिड़की का मन्तव्य है। कहानी के कथानक को लघुकथा के रूप में नहीं रखा जा सकता क्योंकि कथानक जिन बिंदुओं पर विस्तार चाहता है, वरित्रों का रूपायन चाहता है, वह लघुकथा नहीं दे सकती। इस प्रकार लघुकथा में एक अवयव,सक व्यक्तित्व की केवल एक विशिष्टता, एक घटनांश विशेष, एक संकेत, एक जीवन खंडांश हो सकता है। विश्लेषण की अपेक्षा एकान्विति की गहनता ही इसके कथानक को सुगुंफित रख सकती है।
डॉ बलराम अग्रवाल के अनुसार "लघुकथा किसी एक ही संवेदन बिंदु को उद्भाषित करती हुई होनी चाहिए, अनेक को नहीं कथा-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप इसमें लम्बे कालखंड का आभास भले ही दिलाया गया हो लेकिन उसका विस्तृत ब्यौरा देने से बचा गया हो I लघुकथा में जिसे हम "क्षण" कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या या पाठक मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए ।
लघुकथा में एकल कालखंड वाली बात तो स्पष्ट हो गई, किन्तु अब प्रश्न यह है कि कालखंड दोष से बचाव कैसे हो। उसके लिए श्री सुभाष नीरव के "एक ही कालखंड" को समझना बेहद आवश्यक है, सुभाष नीरव जी के शब्दों में: एक श्रेष्ठ लघुकथा में जिन आवश्यक तत्वों की दरकार आज की जाती है, मसलन वह आकार में बड़ी न हो, कम पात्र हों, समय के "एक ही कालखंड" को समाहित किए हो।
लघुकथा के "समय के एक ही कालखंड" से सम्बंधित होने से बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है।किन्तु यह समझना भी बेहद आवश्यक है कि कोई भी लघुकथा मात्र इसी कारण कालखंड दोष से ग्रसित नहीं हो जाती कि वह एक से अधिक कालखंड में विभक्त है।वस्तुत: एक से अधिक घटनायों, कालखंडों अथवा अंतराल को आपस में जोड़ने की कुशलता के अभाव से कालखंड दोष पैदा होता है। उदाहरण के लिए एक माँ द्वारा अपने बच्चे को सुबह स्कूल छोड़ने जाना और फिर बाद दोपहर वापिस लाना प्रथम दृश्या एक ही घटना है । किन्तु बच्चे को सुबह स्कूल छोड़ने और शाम को उसे लेने जाने के मध्य जो "अंतराल" है, उसके कारण घटनाक्रम दो कालखंडों में विभाजित हो गया है। लेकिन एक कुशल और अनुभवी रचनाकार विभिन्न कालखंडों में ऐसा सामंजस्य पैदा कर सकता है कि कालखंड दोष का स्वत: निवारण हो जाता है।यहाँ सुप्रसिद्ध लघुकथा मर्मज्ञ मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा "समय का पहिया घूम रहा है" की बात करना समीचीन होगा । इस लघुकथा में लघुकथा 400 वर्ष एवं एक से अधिक कालखंडों में विभाजित होने के बावजूद भी कालखंड-दोष से मुक्त है। अलग अलग कालखंड से सम्बंधित घटनायों को इस प्रकार एक सूत्र में पिरोया गया है कि पाठक दांतों तले उँगलियाँ दबाने पर विवश हो जाता है । कालखंड दोष से बचने का दूसरा आसान उपाय है फ्लैशबैक तकनीक, यह तरीका अपना कर इस दोष से बचा जा सकता है, किन्तु कुशलतापूर्वक ऐसा करने के लिए भी एक लघुकथाकार को गहन अध्ययन, अभ्यास और अनुभव की आवश्यकता होती है ।
अंत में केवल इतना ही निवेदन करना कहूँगा कि लघुकथा में शब्द-सीमा का अतिक्रमण कुछ हद तक क्षम्य भी है किन्तु कालखंड दोष से ग्रसित रचना तो लघुकथा ही नहीं रह जाती है, अत: इससे हर हाल में बचा जाना चाहिए ।
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